Monday, 7 September 2015

*चलो, करें जंगल में मंगल*

चलो,  करें   जंगल  में  मंगल,
संग प्रकृति के  जी  लें दो पल।
बतियाएं कुछ  अपने मन की,
और  सुनें  उनके  जीवन  की।

मन  से  मन की  बात  बताएं,
और प्रकृति में घुल मिल जाएं।
देखो  झरने, क्या  कुछ  कहते,
कल-कल  करते  बहते  रहते।

हँसकर  फूल  बुलाते  हमको,
हँसते  रहो   सिखाते  हमको।
शान्त झील का दृश्य विहंगम्,
जलचर क्रीड़ा मधुरम् मधुरम्।

मोर नृत्य  करता, कुछ कहता,
कोयल-कण्ठ मधुर-रस बहता।
आसमान  के   अनगिन  तारे,
निश्छल  मन  से  हमें  पुकारे।

वो  देखो  बदली  घिर  आई,
दादुर  ने   अब   टेर   लगाई।
झम-झम  पानी बरस रहा है,
धरती का मन  हरस रहा है।

सर-सर  हवा  बही मतवाली,
चहके खग-मृग मनी दिवाली।
जंगल  में  मंगल  मन  जाए,
काश, कभी कुछ यूँ हो पाए।

यूँ  तो   जंगल  बचे  कहाँ हैं,
फिर  भी  ढूँढ़े   बचे  जहाँ हैं।
जंगल  में   मंगल  तब  होगा,
जंगल  कहीं  बचा जब होगा।

जंगल  बचा, बचेंगे हम  तब,
मर  जाएंगे,  बरना  हम  सब।
जागो, और बचा  लो  उसको,
जंगल बचा, बचा लो खुद को।
...आनन्द विश्वास

No comments:

Post a Comment