Tuesday 24 February 2015

*वाणी पर संयम*

*वाणी पर संयम*
(प्रस्तुत कहानी मेरे उपन्यास देवम बाल-उपन्यास
से ली गई है। जिसे डायमंड बुक्स,दिल्ली
से प्रकाशित किया गया है।)
...आनन्द विश्वास

उस दिन देवम की कक्षा में टीचर पढ़ा रही थीं, कोई गम्भीर विषय चल रहा था। लेकिन पीछे दो छात्र आपस में बात करने में इतने तल्लीन थे कि वे भूल ही गये कि वे कक्षा में बैठे हैं । 
बातें करने के कारण पढ़ाई में व्यवधान उत्पन्न हो रहा था। एक दो बार टीचर ने उन्हें टोका भी, पर उनका वार्तालाप थोड़ी देर के लिये रुका और फिर चालू हो गया।
टीचर से न रहा गया, उन्होंने उन दोनों छात्रों को इंगित करते हुय़े कहा-बच्चो ! आज मैं मानव शरीर के उन तीन अंगों के विषय में बताती हूँ, जो शिक्षा प्रक्रिया के आदान-प्रदान के मुख्य माध्यम होते हैं। यानि कि वे तीन मानव अंग जो ज्ञान के आदान-प्रदान में काम आते है।
उन्होंने बताया कि ईश्वर ने हमें तीन अंग दिये हैं जिनके माध्यम से हम ज्ञान प्राप्त करते हैं अथवा ज्ञान देते हैं और वे हैं, आँख, कान और मुँह।
भगवान ने हमें दो आँखें दी हैं और उनका काम केवल देखना है यानि कि चीज़े दो और काम एक। और यदि आँखों में कुछ कमी हो तो उसकी सहायता के लिये चश्मे भी।
दूसरा अंग कान, कान दो और काम एक। सुनना और केवल सुनना। और यदि कुछ कमी हो तो सहायता के लिये वैज्ञानिक उपकरण भी।
और तीसरा अंग है मुँह, जिसकी सहायता के लिये न तो कोई वैज्ञानिक उपकरण है और न कोई दूसरा विकल्प। मुँह, एक और केवल एक, और काम दो। बोलना और खाना खाना।
उसमें भी बोलने का काम जीभ करती है जिस पर ईश्वर ने बत्तीस पहरेदार बैठाये हुये हैं वे भी पत्थर के कठोर। बेचारी कोमल जीभ और पहरेदार पत्थर के। अगर जरा सा भी उल्टा-सीधा बोला तो समझो खैर नहीं।
यानी देखने और सुनने पर कोई अंकुश नहीं, जितना चाहो उतना देखो और सुनो। पर बोलने पर अंकुश। अर्थात वाणी पर संयम। बहुत सोच समझ कर बोलो। कुछ भी बोलने से पहले सौ-सौ बार सोचो और फिर बोलो।
क्योंकि शब्द-बाण एक बार मुँह में से निकलने के बाद फिर कभी वापस नहीं आता। अर्थात बिना सोचे समझे बोलना, विपत्ति-निमंत्रण और मूर्खता से कम कुछ भी नहीं।
जीभ पर जब कोई घाव हो जाता है तो वह बहुत जल्दी ठीक हो जाता है। पर ध्यान रहे जीभ के द्वारा शब्दों से जो घाव होता है तो वह कभी भी नहीं भर पाता है।
आदमी मर जाता है लेकिन शब्द कभी भी नहीं मरता। शब्द सदैव आकाश में ही विद्यमान रहता है। और शब्द-बाण से आहत मन का घाव कभी भी नहीं भर पाता है। जीवन पर्यन्त नहीं।
द्रोपदी के शब्द-बाण ने ही तो कुरुक्षेत्र की धरती को खून से लथपथ कर दिया था। ऐसी खून की होली खेली गई, जिसे मानवता के इतिहास में कभी भी भुलाया नहीं जा सकता। हाँउस होली का नाम है महाभारत।
द्रोपदी ने दुर्योधन से अंधे के अंधे ही होते हैं।नहीं कहा होता तो शायद महाभारत नहीं हुआ होता और न ही चीर-हरण जैसी अप्रिय और शर्मसार कर देने वाली घटना हुई होती।
बुद्धिमान व्यक्ति बोलने से पहले दस बार सोचते हैं, बोलने के बाद नहीं। और मूर्ख व्यक्ति पहले बोलते हैं और फिर सोचतें हैं, अरे ! मैंने यह क्या बोल दिया। पर बाद में अफसोस से क्या फायदा ?
अब आपको ही निर्णय करना है कि आप कौन हैं ? बुद्धिमान या फिर मूर्ख।
और गाँधी जी ने भी तो इन्हीं तीन अंगों के कार्यों और महत्व को तीन बन्दरों के माध्यम से समझाया है। उनके अनुसार - बुरा न देखो, बुरा न सुनो और ना ही बुरा बोलो। यानि, आँख, कान और मुँह। देखना, सुनना और बोलना। और इन तीनों अंगों का सही उपयोग तो यही है कि अच्छा देखना, अच्छा सुनना और अच्छा बोलना।
आँख और कान के माध्यम से हम बाहर की वस्तुओं और शब्दों को देखते और सुनते हैं। जिनका मंथन मन में होता है। जिनका प्रभाव हमारे मन पर पड़ता है। जिनसे हमें जानकारियाँ प्राप्त होती हैं। और बोलने से अन्दर की जानकारियाँ बाहर जाती हैं। आप जो जानते हैं वही बोल सकते हैं। 
मैं आप से ही पूछती हूँ, आप क्या बोल सकते हैं? आप केवल वही बोल सकते हैं जो आप जानते हैं। यानि आप जो जानते हैं वो यहाँ बताने आते हैं या कुछ जानने और सीखने के लिये आते हैं ?
और जानने का काम तो आँख और कान करते हैं। और इन्हीं दो अंगों के माध्यम से आदमी ज्ञान प्राप्त करता है। अत: विद्यार्थियों को तो आँख और कान का ही अधिक उपयोग करना चाहिये। बोलने से ज्ञान प्राप्त नहीं होता। बोलने से तो आप अपना ज्ञान दूसरों को दे सकते हैं, प्राप्त नहीं कर सकते।
और विशेषकर तो जो लोग कुछ सीखना या जानना चाहते हैं उन्हें तो कम से कम या ना के बराबर ही बोलना चाहिये। और जब छात्र कक्षा में बैठ कर पढ़ाई के समय में बोले, बात-चीत करे, तो उसका क्या करना चाहिये ?
इससे तो वह न केवल अपना नुकशान कर रहा है वल्कि उसके कारण पूरी कक्षा की पढ़ाई का नुकशान होता है। क्या ऐसे छात्र दण्ड के अधिकारी नही हैं ? क्यों न उन्हें कुछ दण्ड मिलना चाहिये ?
टीचर इतना ही कह पाई थी कि घंटी बज गई। टीचर ने कहा-आगे मैं कल बताऊँगी। और इतना कह कर टीचर अपना पर्स ले कर, दूसरी कक्षा में चली गईं।
टीचर के जाते ही पूरी कक्षा में एक सन्नाटा छा गया फिर कुछ छात्रों ने उन बातें करने वाले छात्रों को गलत बताया। और कहा कि कक्षा में इस प्रकार बात करने से सभी की पढाई का नुकसान होता है।
 देवम ने भी उन दोनों छात्रों को कक्षा के बाहर बुला कर समझाया और कहा कि यदि तुम अपना मन पढ़ने में नहीं लगाओगे और व्यर्थ की बातों में अपना समय बरबाद करोगे तो तुम फेल भी हो सकते हो और तुम्हें स्कूल से निकाला भी जा सकता है।
अपने भविष्य को बिगाड़ कर तुम्हें कुछ नही मिलने वाला। इस कार्य के लिये तुम्हें टीचर से क्षमा माँगनी चाहिये। और अपना मन केवल पढने में लगाना चाहिये।
देवम की बात उन शैतान, बातूनी छात्रों को भी पसंद आई और उन्होंने कहा कि कल टीचर के कक्षा में आने पर क्षमा माँगेंगे और भविष्य में हम कभी भी कक्षा में बात नहीं करेंगे। और साथ ही यह भी कहा कि भविष्य में हम कभी भी कोई ऐसा काम नहीं करेंगे जिससे अन्य छात्रों का कोई नुकसान हो।
दूसरे दिन तो बस सबका एक ही इंतजार था कि कब सातवाँ पीरियड आये और दोनों छात्र टीचर से माफी मागें।
पर टीचर के आने पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ बल्कि टीचर ने आगे पढाना शुरू कर दिया। जैसे कभी कुछ हुआ ही न हो। सभी छात्र हैरान थे। सभी छात्र तो ये सोच रहे थे कि आज टीचर उन छात्रों को जरूर ही सजा देगी। सब छात्र एक दूसरे से पूछते। पर क्या हुआ, यह रहस्य ही बना रहा।
और फिर कुछ दिनों के बाद, पता नहीं कैसे, कहाँ से, जब छात्रों को असलियत का पता चला तो छात्रों के मन में देवम के प्रति अपार सम्मान उत्पन्न हो गया। सभी ने देवम के विवेक पूर्ण निर्णय की खूब प्रशंसा की।
हुआ यह कि जब दोनों छात्रों ने देवम के समझाने पर अपनी गलती को स्वीकार कर लिया तो देवम ने अकेले में टीचर से बात की और सारी घटना को बताया और कहा कि दौनों छात्रों ने अपनी गलती को मान लिया है।
तो टीचर ने देवम से कहा-ठीक है, अब मैं कक्षा में किसी भी प्रकार की कोई चर्चा नहीं करूँगी और तुम उन छात्रों को समझा देना। और छात्रों को कह देना कि भविष्य में यदि इस प्रकार की कोई उद्दण्डता उन्होंने की तो उन्हें अवश्य दण्ड दिया जायेगा।
और इस प्रकार देवम ने उन छात्रों को सभी के सामने अपमानित होने से बचाया। और टीचर के द्वारा भी जब इस घटना की पुष्टि कर दी गई तो सभी छात्रों के मन में देवम के प्रति अपार श्रद्धा उत्पन्न हो गई।
देवम के इस विवेकपूर्ण कार्य की सभी ने खूब-खूब प्रशंसा की।
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...आनन्द विश्वास