बात
उन दिनों की है जब एक आने के दो समोसे आते थे और एक रुपये का सोलह सेर गुड़।
अठन्नी-चवन्नी का जमाना था तब। प्राइमरी स्कूल के बच्चे पेन-पेन्सिल से कागज पर
नहीं, बल्कि नैज़े या सरकण्डे की बनी कलम से खड़िया की सफेद स्याही से, लकड़ी के
तख्ते की बनी हुई पट्टी पर लिखा करते थे।
वो
दिन भी क्या दिन थे जब लकड़ी की पट्टी को काँच के बने घुट्टे से घिस-घिसकर चिकना
किया जाता था। उस पर लिखने में मजा ही कुछ और था। पट्टी के एक ओर एक से सौ तक की
गिनती और दूसरी ओर दो से दस तक के पहाड़े लिख कर मास्टर जी को दिखाना और फिर उसे
पानी से धो देना। इसके बाद गीली पट्टी की मुठिया को पकड़ कर हवा में जोर-जोर से
हिला-हिला कर सुखाया जाता था और उसके साथ ही गाना गाने का आनन्द भी तो उतना ही
सुखद और आनन्द-दायी होता था जब क्लास के सभी बच्चे मिलकर गाना गाते थे और गाना
गा-गाकर भीगी हुई पट्टी सुखाते थे। सब को याद था ये गाना...
सुख-सुख पट्टी, चन्दन घुट्टी।
राजा आये, महल
बनाया।।
महल के
ऊपर झप्पड़ छाया।
झप्पड़ गया टूट, पट्टी गई सूख।।
हाँलाकि
इस गाने का अर्थ तो आज तक मुझे पता नहीं चल सका। पर हाँ, इतना जरूर था कि पट्टी तो
सूख ही जाती थी। पता नहीं, हो सकता है इसके पीछे कोई तर्क रहा हो। पर कोई बात तो
जरूर ही रही होगी, इस प्रकार से सामूहिक गाना गाने की। अपने बुगुर्जों के कार्य
करने की शैली और उनकी बुद्धिमत्ता पर जरा भी संशय करना या कोई प्रश्न उठाना, उचित
सा तो नहीं लगता।
शायद
बच्चों को गाना सिखाने का उद्देश्य तो अवश्य ही रहा होगा। आजकल जैसे गाने, तब शायद
नहीं थे। जौनी-जौनी यस पापा या बाबा ब्लैक शीप या टिंक्वल-टिंक्वल लिटल स्टार जैसे
गानों का प्रचलन ही कहाँ था तब। अंग्रेज और अंग्रेज़ियत का प्रभाव, इतना नहीं था
तब, जितना अब और आजकल है। तब तो हिन्दी, हिन्दुस्तान और हिन्दुस्तानियत की बू उतनी
ही गर्व की बात मानी जाती थी, जितनी कि आजकल अंग्रेजी और अंग्रेज़ियत की बू।
और
जब पट्टी सूख जाती थी, तब उसे काँच के घुट्टे से घिस-घिस कर चिकना करने और फिर
सरकण्डे की बनी कलम से लिखने में जो आनन्द आता था वह आनन्द आज के इस फैशनेबिल
लैपटॉप या कम्प्यूटर की की-बोर्ड पर अँगुलियाँ घुमाने में कहाँ। नैज़े की कलम से,
खड़िया की सफेद स्याही को बुदक्के में भर कर, बार-बार कलम को डुबा-डुबाकर एक-एक
अक्षर को सफेद मोती-सा टाँकना, कितना मन-भावन होता था और वह भी टाट के बोरे पर बैठ
कर। कोई फर्नीचर नहीं, कोई सीटिंग एरेंजमेंट नहीं, आगे-पीछे बैठने का भी कोई झंझट
नहीं। बस, जहाँ पर बिछा दिया बोरा, लो बन गया वहीं पर क्लास-रूम।
और
रिसेस के बाद तो पूरे स्कूल की सभी कक्षाऐं दो भागों में बँट जाती थीं और फिर शुरू
हो जाता था, दो से पच्चीस तक के पहाड़े बोलने का गेम। एक टीम बोलती, दो एकम् दो,
तो दूसरी टीम बोलती, दो दूना चार, दो तिया छः, दो चौका आठ.... और फिर इसके बाद,
इसी तरह से ढ़इय्या, अध्धा, पौना और सबैय्या। सबको सब कुछ तोते की तरह से रटे पड़े
थे। रोज़ाना जो बोलने पड़ते थे। बच्चों का दिमाग ही जैसे कैलक्यूलेटर और कम्प्यूटर
बन जाता था। लाखों का गुणा-भाग तो बस यूँ ही, चुटकी बजाते ही, मन ही मन में हो
जाते थे।
और
गलती करने पर पाँच सन्टी की सजा तो सामान्य श्रेणी की सजा ही मानी जाती थी, शीशम
की हरी सन्टी का ही प्रचलन था तब। और हर सन्टी पर चींख ही निकल जाती थी बच्चों की।
पर मज़ाल है कि किसी बच्चे का कोई अभिभावक स्कूल में आकर यह कह दे कि मास्टर जी
आपने मेरे बालक को क्यों मारा। हाँ, ऐसा तो जरूर कहने आते थे कि मास्टर जी अगर ये
बालक कोई गलती करे तो इसे मार-मार कर ठीक कर दीजिए और सुधारिए। इसे अपना बच्चा ही
समझिये, ये हमारी बातें तो कम, पर आपकी बातें ज्यादा मानता है। आत्मीयता भी थी तब
और कर्तव्य का पावन बोध भी।
और
इतना ही नहीं, इससे बड़ी सजा होती थी मुर्गा बनाने की। यानी अगर गलती करोगे तो फिर
मनुष्य योनी से मुर्गा-योनी में प्रवेश। कुछ समय के लिये तो मुर्गा ही बना दिया
जाता था। और कभी-कभी तो निर्जीव कुर्सी भी बना दिया जाता था। इतना ही नहीं उस
बाल-कुर्सी पर किसी दूसरे बच्चे को भी बैठा दिया जाता था। या फिर सिर पर और गोदी
में दो-दो ईंटें भी रख दी जाती थी और ईंट गिरने पर फिर वही पाँच शीशम की सन्टी की
सजा। जी हाँ, वही शीशम की हरी सन्टी। बच्चों के चरित्र-निर्माण और न्याय के साथ
कोई समझौता नही किया जाता था। निष्पक्ष न्याय होता था मास्टर जी के दरबार में।
मैं
पाँचवीं कक्षा में पढ़ता था। यूँ तो मेरी गिनती स्कूल के कुछ इने-गिने अच्छे
बच्चों में ही होती थी और सभी शिक्षकों का स्नेह मेरे ऊपर रहता ही था। फिर भी मुझे
सबसे अधिक डर लगता था तो वो थे मेरे स्कूल के हैड-मास्टर साहब और हैड मास्टर साहब,
अगर सबसे अधिक किसी बच्चे को प्यार करते थे, तो वह मैं था।
कारण
मुझे पता नहीं, पर मैं तो यह ही मानता था कि मैं पढ़ने में होशियार हूँ और
हैड-मास्टर साहब का सब काम दौड़-दौड़कर कर देता हूँ। मसलन चॉक लेकर आना या फिर
बोर्ड को साफ करके रखना या फिर जब कभी उनका आदेश होता तो बाहर लगे हैन्ड-पम्प से
ठन्डे-ठन्डे पानी का गिलास भरकर ले आना। पानी तो वे अक्सर मेरे हाथ का ही पिया
करते थे और मैं भी पानी लाने में साफ-सफाई का बहुत ध्यान रखता था। शायद इसलिये या
और कुछ। पर कारण का तो मुझे पता नहीं।
उन्हीं
दिनों म्युनिस्पलिटी के चुनाव होने वाले थे और चूँकि प्राइमरी स्कूलस् म्युनिस्पल
बोर्ड के अन्तर्गत आते थे, अतः चुनाव सम्बन्धी कार्य प्राइमरी स्कूलस् के टीचर्स
और हैड-मास्टर्स को सोंपे गये थे। सभी शिक्षकों को अपने-अपने निर्धारित वार्ड में
जाकर म्युनिस्पल बोर्ड के चुनाब की वोटिंग की पर्चियों को बाँटने के तथा अन्य
कार्य सोंपे गये थे। हैड-मास्टर साहब को जो वार्ड सोंपा गया था उसी वार्ड में मेरा
घर था। और यह सब काम स्कूल की छूट्टी होने के बाद ही, अतिरिक्त समय में करना होता
था।
उस
दिन, शाम का समय था घर के बाहर चौक में मैं अपने सभी साथियों के साथ खेल रहा था।
और इसी समय हैड मास्टर साहब का चौक में आना हुआ। हैड-मास्टर साहब को देखते ही खेल
तो तुरन्त ही बन्द हो गया और मेरे सभी साथी, कौतूहल और जिज्ञासा-वश हैड-मास्टर
साहब के पास पहुँच गये। पर मैं दौड़कर अपने घर पर जा पहुँचा और माता जी को बताया
कि मेरे स्कूल के हैड-मास्टर साहब अपने मोहल्ले में आये हुये हैं अतः वे घर से
बाहर न निकलें और घर के अन्दर ही रहें।
उन
दिनों पर्दा-प्रथा का प्रचलन अधिक था और मेरे संस्कारों के हिसाब से मेरी माता जी
को हैड मास्टर साहब के सामने जाना सर्वथा अनुचित ही था। अतः मैं अपनी माता जी के
पैरों से लिपट कर धक्का देते-देते उन्हें दरवाजे के अन्दर ले जाने का प्रयास करने
लगा। यह सोचकर कि अगर मेरे हैड-मास्टर साहब ने मेरी माता जी को देख लिया तो लोग
क्या कहेंगे। मेरे परिवार की प्रतिष्ठा का प्रश्न जो था।
और
उधर जितनी तेजी से मैं माता जी के पैरों से लिपटकर उन्हें घर के अन्दर की ओर धक्का
दे रहा था उससे दुगनी तेज गति से हैड-मास्टर साहब मेरी माता जी की ओर बढ़े आ रहे
थे। इतनी स्फूर्ति मैंने हैड-मास्टर साहब में कभी भी नहीं देखी थी। इस दौड़ में,
मैं तो हार ही गया और हैड मास्टर साहब अपने लक्ष्य तक पहले पहुँचने में सफल हो
गये। हैड-मास्टर साहब ने झुककर मेरी माता जी के पैर छू ही लिये। गले से लगा लिया
था हैड-मास्टर साहब को, मेरी माता जी ने। आशीर्वाद की वर्षा हो रही थी।
मैं
कभी अपने हैड मास्टर साहब को, तो कभी अपनी माता जी को और कभी अपने आप को देख रहा
था। क्या माज़रा है कुछ भी तो समझ में नहीं आ रहा था, मुझे। मेरे स्कूल के
हैड-मास्टर साहब, जिनकी छाया मात्र से ही, मैं थर-थर काँपने लगता था, वे
हैड-मास्टर साहब, मेरी माता जी के पैर छूकर आशीर्वाद प्राप्त कर रहे हैं, जिन्हें
मैं उनसे छुपाने का प्रयास कर रहा था। मेरी समझ नहीं आ रहा था कि मेरे हैड-मास्टर
साहब धन्य हैं या मेरी माता जी धन्य हैं या फिर मैं।
पर
धन्य तो हमारी भारतीय संस्कृति ही है जिसने हमें ऐसे संस्कार दिये। उन संस्कारों
को हम अगर भूल जायें और दरकिनार कर दें तो इसमें उस संस्कृति का क्या दोष।
“कैसे हो बेटा, सब ठीक-ठाक है न। इधर काफी समय से मिले नहीं। कोई परेशानी
तो नहीं है।” माता जी ने बड़े ही स्नेहिल भाव से हैड-मास्टर
साहब से पूछा।
“बस, माता जी आपका ही आशीर्वाद है। अभी कुछ दिन पहले गाँव गया था, सोनू
बिटिया की शादी कर दी है, लड़का गाँव में ही लेखपाल है। परिवार भी अच्छा
खाता-कमाता है। और बाकी सब ठीक है, माता जी।” हैड मास्टर
साहब ने माता जी से कहा।
“चलो अच्छा हुआ बेटा, एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी तो पूरी कर ली। कभी-कभार तो
तू घूम जाया कर, चिन्ता बनी रहती है। इतने दिनों से नहीं आया, तो लग रहा था कि
कहीं तेरा ट्रान्सफर तो नहीं हो गया है।” माता जी ने प्यार
भरे लहज़े में कहा।
“नहीं माता जी, समय ही नहीं मिल पाया इधर आने का। वैसे इच्छा तो बहुत हो
रही थी आपसे मिलने की।” हैड-मास्टर साहब ने अपना स्पष्टीकरण
देते हुए कहा।
“ठीक है बेटा, जब कभी भी समय मिले तो घूम जाया कर।”
माता जी ने आशीर्वाद देते हुए कहा।
“हाँ माता जी, और वैसे भी, अभी तो चुनाव के सिलसिले में इधर आना-जाना लगा
ही रहेगा।” हैड-मास्टर साहब ने बताया।
माता
जी से मिलने के बाद हैड-मास्टर साहब, अपने चुनाव
के अन्य कामों में व्यस्त हो गये। मुहल्ले में चुनाव की पर्चियाँ बाँटकर
चले गये।
पर
आजतक वे मेरे मन से नहीं जा सके और विनम्रता का ऐसा पाठ सिखा गये जिसे मैं आजतक भी
नहीं भूल पाया। मेरे हैड-मास्टर साहब ने मेरी माता जी के पैर क्या छुये, मेरे मन
को ही छू गये।
मैंने
माता जी से जब यह सब कुछ पूछा तो उन्होंने बताया-“बेटा, तेरे हैड-मास्टर सुखवासी लाल को, तेरे पिता जी ने पढ़ाया था इसलिये
वे मेरे पैर छूते हैं। मैं उनकी गुरू-माँ हूँ न।”
और
तब मैं समझ पाया था गुरू और माँ की महिमा को। सच में, माँ तो आखिर माँ ही होती है।
दूसरे
दिन स्कूल पहुँच कर सबसे पहले मैंने अपने गुरू जी के पैर छुये थे, सच में मैंने
पैर ही नहीं, उनका हृदय ही छू लिया था। भरी क्लास में गोदी में उठाकर, गले से लगा
लिया था हैड-मास्टर साहब ने।
बज्र-सा
हिमालय पानी-पानी होते देखा था, उस दिन मैंने। और मेरी आँखों से गंगा ही तो वह
निकली थी और तब मैंने जाना था कि आशीर्वाद की गंगा तो चरणों से ही निकलती है और
धारण की जाती है ललाट पर, फिर चाहे वो महादेव भोले शंकर ही क्यों न हों।
-आनन्द विश्वास
-आनन्द विश्वास
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