सोसायटी के ग्राउन्ड में देवम और
उसके साथी क्रिकेट खेल रहे थे। देवम बैटिंग कर रहा था, अधिक ज़ोर से शॉट लगने के
कारण बॉल कम्पाउड वॉल के बाहर चली गई।
बॉल को लेने के लिये देवम और उसके
साथी जब सोसायटी के बाहर पहुँचे तो देवम ने देखा कि उस बॉल को तो झोंपड़-पट्टी में
रहने वाला आठ एक साल का एक बच्चा अपनी छोटी बहन को दिखा कर कह रहा था कि पारो देख
कितनी सुन्दर गेंद
? मुझे पड़ी मिली है और गेंद को देख कर तो उसकी आँखों में एकदम चमक
सी आ गई और पारो, रोते-रोते चुप होकर हँसने लगी।
यह दृश्य देवम को बड़ा ही अच्छा
लगा। गोल मटोल चेहरा, बड़ी-बड़ी आँखें, उलझे हुये बाल, सुन्दर लगने वाली, गन्दी सी
अपनी छोटी बहन को गेंद से खिलाता हुआ आठ साल का बड़ा भाई।
देवम के एक साथी ने उसके हाथ से बॉल
को छीनते हुये कहा, “ ये बॉल तो हमारी है, तूने
क्यों ले ली है ?
लाओ, हमारी बॉल हमें वापस करो। ”
पर न जाने क्यों, देवम ने अपने साथी
से बॉल उन्हें वापस देने के लिये कहा। देवम के सभी साथी, देवम के इस निर्णय से
अवाक रह गये।
पर देवम के निर्णय को नकारने की
किसी में हिम्मत न थी और वैसे भी, वे जानते थे कि देवम जो कुछ भी करेगा, सही ही
करेगा।
देवम ने अपने साथी से गेंद ले कर उस
बच्ची के हाथों में वापस दे दी।
और फिर बड़े प्यार से उसके बड़े भाई
से पूछा, “ क्या नाम है इसका ? बड़ी प्यारी लगती है। ”
“ पारो ” लड़की के भाई ने कहा।
“ और तुम्हारा ” देवम ने पूछा।
“ रजत ” लड़के
ने उत्तर दिया।
“ कौन-सी कक्षा में पढ़ते हो
? ” देवम
ने पूछा।
“ मैं स्कूल नहीं जाता। ” रजत ने बताया।
“ तो तुम सारे दिन क्या करते रहते
हो ? ” देवम ने आश्चर्यचकित हो कर पूछा।
“ मम्मी काम पर जाती है, मैं पारो
को खिलाता हूँ और खुद भी खेलता हूँ। ’’ रजत ने बताया।
“ तुम्हारी पढ़ने की इच्छा नहीं
होती ? ” देवम ने पूछा।
“ हाँ, होती तो है। ” रजत ने कहा।
“ तो फिर पढ़ने क्यों नहीं
जाते हो ? अरे भाई,
पढ़ोगे नहीं तो कैसे काम चलेगा ? पढ़ाई ही तो है, जो जीवन
में काम आती है । ” देवम ने समझाते हुये कहा।
“ माँ ना करती है। वो कहती है काम
नहीं करूँगी तो खाने को पैसा कहाँ से आयेगा ? और इतने पैसे
कहाँ जो तुझे पढ़ा सकूँ ? ” रजत ने बताया।
“ क्या काम करती है तुम्हारी माँ ? ” देवम ने सहानुभूतिपूर्वक पूछा।
“ घर-काम करती है, दो-तीन जगह। ”
रजत ने दुखी मन से बताया।
“ और तुम्हारे पापा क्या काम करते
हैं ? ” देवम ने पूछा।
“ पापा नहीं हैं। ” रजत ने दबे स्वर में कहा।
बस यही बात देवम के मन को छू गई और
उसका हृदय द्रवित हो गया। देवम और रजत एक दूसरे के इतने करीब आ गये जैसे वे बहुत
पुराने दोस्त हों।
अपने मन में बहुत से सवालों को
समेटे हुये देवम अपने साथियों के साथ, बिना बॉल लिये ही सोसायटी में वापस आ गया।
खेल खत्म हो गया था और होना ही था। क्योंकि गेंद अब उनके पास में नहीं थी। सब
अपने-अपने घरों को चले गये।
देवम के साथी सोच रहे थे कि, “ देवम ने ऐसा क्यों किया ? बॉल पारो को क्यों दे दी ? ” और देवम सोच रहा था कि, “
ऐसा क्यों है ? गरीबी-अमीरी क्यों है ? सबको शिक्षा क्यों नहीं ?
गरीब आखिर शिक्षा से वंचित क्यों हैं ? सरकार तो कहती है,
शिक्षा पर सबका हक है। पर कहाँ ? ”
सबकी अपनी-अपनी सोच, अपने-अपने विचार।
आज का खेल अधूरा ही रह गया था
क्योंकि बॉल तो अब पारो के पास थी। गेंद पा कर पारो बहुत खुश थी और गेंद दे कर
देवम बहुत खुश था। किसी को सुख पहुँचाने की खुशी जो देवम के पास थी।
ये भी कैसा खेल है कि कोई कुछ पा कर
खुश होता है तो कोई कुछ दे कर खुश होता है।
देवम ने घर पहुँच कर सभी बातें अपनी
मम्मी को बताईं। मम्मी को अच्छा लगा, वे तुरन्त ही देवम के मन को भाँप गईं। माँ,
बेटे के मन को न पढ़ पाये, ऐसा तो हो ही नहीं सकता। आखिर, माँ तो माँ होती है।
चोट बेटे को लगती है और दर्द माँ को
होता है। खुशी बेटे को होती है और आँखें, माँ की हँसती हैं। ये रिश्ता ही कुछ ऐसा
होता है।
देवम की मम्मी ने कहा, “ सुन, ऐसा करते हैं, तेरे डॉल-बॉक्स में जो गुड़िया-गुड्डे और खिलौने रखे
हैं उन में से दो चार खिलौने और माउथ ऑर्गन उसको दे देना। बच्चे हैं, खेल लिया
करेंगे। ”
मम्मी ने तो जैसे देवम के मुँह की
बात ही छीन ली हो। आखिर देवम भी तो यही चाहता था।
मम्मी की परमीशन, बस बात पक्की और
देवम का काम चालू। देवम ने तुरन्त अपना डॉल-बॉक्स खोला। और देखा कि कौन-कौन से
खिलौने ऐसे हैं जो कि पारो के हिसाब से ठीक रहेंगे।
उसने दो तीन अच्छी-सी गुड़ियाँ,
गाना गाने वाली गुड़िया और माउथ ऑर्गन निकाल कर मम्मी को दिखाया और पूछा, “ मम्मी, ये सब ठीक रहेंगे ? ”
“ हाँ, ठीक है और दो तीन दिन में,
मैं बाजार से कुछ कपड़े भी ला कर दे दूँगी, बाद में वो भी दे आना। ” मम्मी ने देवम को समझाते हुये
कहा।
“ ठीक है मम्मी, अभी तो बस इतना
ही दे आता हूँ। और फिर बाद में देखा जायेगा। ” देवम ने कहा।
देवम आज बहुत खुश था। देवम सभी
खिलौनों को एक थैली में रख कर, अपने साथी शुभम को साथ ले कर चल पड़ा, झौपड़-पट्टी
की ओर। रजत की तलाश में।
अपनी झोंपड़ी के सामने देवम और उसके
साथी को खड़ा देख कर, क्षण भर के लिये तो रजत डर ही गया। उसे लगा कि अब ये लोग
गेंद वापस लेने आये हैं और ये ले कर ही जायेंगे। इस बात को सोच कर तो वह और भी
अधिक परेशान हो गया कि अब पारो रो-रो कर बुरा हाल कर देगी। पर वह गेंद किसी भी हाल
में वापस देने वाली नहीं है। चाहे कुछ भी, क्यों न हो जाये।
और माँ का भी अभी कुछ भी पता नहीं
है, पता नहीं वह अभी न जाने कहाँ पर होगी ? और मैं
अकेला पारो को कैसे चुप कर पाऊँगा ? कैसे दिलासा दे पाऊँगा
उसे ? कैसे बहला पाऊँगा मैं पारो को ?
और ये लोग तो गेंद लिये वगैर जाने वाले नहीं हैं।
कैसी मुसीबत आन पड़ी है। अच्छा होता
कि मैंने गेंद को लिया ही न होता। अब क्या करूँ ? अभी तो मेरा कोई दोस्त भी नहीं हैं यहाँ पर, अगर झगड़ा-वगड़ा हुआ तो क्या
होगा ?
पर कोई दूसरा रास्ता भी तो न था
उसके पास। अपने पूरे साहस को बटोर कर उसने सोच लिया कि जो भी होगा, वह देखा
जायेगा। पर गेंद तो वह भी वापस देने वाला नहीं है।
गेंद तो मुझे पड़ी मिली है, कोई
किसी के घर से चुराई नही है। अगर अभी पिट भी गया तो शाम को बदला ले कर दिखा दूँगा।
मैं भी कोई किसी से कम नहीं हूँ। शालू, बिल्लू, कल्लू, छुटकू, और सर्किट कब काम
आयेंगे ? चटनी बना कर रख दूँगा। क्या समझते हैं ये बंगले वाले। मेरी बहन रोती रहे
और मैं खड़ा-खड़ा देखता रहूँ। नहीं, मेरे से ऐसा न हो सकेगा। लड़ना ही पड़ा तो जम
कर लड़ूँगा। पर हार नहीं मानूँगा।
और तभी देवम ने बड़े प्यार से रजत
को बुलाया। मन में क्रोध लेकिन फिर भी सहमा-सहमा सा भयभीत रजत, देवम के पास तक
पहुँचा।
देवम ने कहा, “ रजत, ये लो इसमें कुछ खिलौने हैं, कुछ तुम्हारे लिये और कुछ पारो के
लिये। इनसे खेल लिया करना। और दो एक दिन में, मैं तुम्हारे लिये कुछ कपड़े और
किताबें भी ला कर दूँगा। फिर तुम भी पढ़ना। ”
देवम के ऐसे प्यार भरे वचनों को सुन
कर तो रजत हक्का-वक्का ही रह गया। ऐसे व्यवहार की तो उसे कल्पना भी न थी। क्या
समझा था उसने और क्या हुआ। अब उसे काटो तो खून नहीं। उसकी आँखें डबडबा गईं और आँसू
छलक पड़े। सारा का सारा आक्रोश पिघल कर आँसू बन गया। क्रोध का हिमालय पानी-पानी हो
गया था। वह अपने आप को नहीं रोक पाया और रो ही पड़ा।
कैसी-कैसी बातें सोच रहा था मैं
देवम जैसे देवता के बारे में। उसका मन ग्लानि से भर गया। वह अपने आप को क्षमा
माँगने लायक भी नहीं समझ पा रहा था।
“ अरे ! रजत,
तुम तो रो रहे हो, क्यों ? क्या हुआ तुम्हें ? ” देवम ने बड़े प्यार से रजत को अपने गले से लगाते हुए पूछा।
“ नही, कुछ
भी तो नहीं ” और रजत ने सच को छुपाने का असफल प्रयास किया।
“ कुछ नहीं, तो फिर रोना कैसा ?
मैं हूँ न तुम्हारे साथ। कोई बात हो तो बोलो ?
” देवम ने रजत के आँसू पोंछते हुये कहा।
“ क्यों, गेंद को लेकर, क्या तुम्हारी माँ नाराज़ हुईं थीं रात को ? क्या उन्हें
गेंद का लेना अच्छा नहीं लगा ? ” देवम ने फिर पूछा।
“ नहीं, नहीं कुछ भी तो नहीं। बस,
वैसे ही रोना आ गया। ” रजत ने कहा।
और आज फिर सखा सुदामा ने कृष्ण से
कुछ छुपाने का असफल प्रयास किया। इतिहास फिर से दोहराया गया। आँसू के तन्दुल आँखों
की पोटरी से बरबस छलक ही पड़े। आखिर छलिया कृष्ण से कुछ भी छुपा पाना, इतना
आसान भी तो नहीं होता। भोला सुदामा क्या जाने लीलाधर की लीला को ?
“ अच्छा, कोई बात नहीं तो चलो, बस
अब आँसू पौंछो और हँस कर दिखाओ। ” देवम ने वातावरण को हल्का
करने का प्रयास किया।
और फिर देवम ने थैली में से गाना
गाने वाली गुड़िया निकाल कर उसका पेट दबा कर गाना चालू कर, पारो के हाथों में दिया
तो पारो की खुशी का ठिकाना ही न रहा। पारो तो गुड़िया को हाथ में ले कर खुद भी
नाचने लगी। उसको खिलखिलाते हँसता देखकर रजत, देवम और शुभम सभी को अच्छा लगा। देवम
को तो जैसे संसार की सारी दौलत ही मिल गई थी।
फिर देवम ने माउथ आर्गन निकाल कर
रजत को दिया। रजत को बाजा बहुत अच्छा लगा। बाजा बजाया, कोई अच्छी धुन निकालने की
कोशिश, पर असफल प्रयास। दुबारा प्रयास। काफी देर तक रजत बाजा बजाता रहा और कुछ
सीखने की कोशिश करता रहा।
उधर पारो, गुड़िया का पेट दबाती,
गाना शुरू होता, और पारो का डान्स शुरू होता। और फिर, और फिर, और फिर। और न जाने
कितनी बार गुड़िया का पेट दबाया गया होगा और न जाने कितनी बार गुड़िया को गाना
गाना पड़ा होगा।
बेचारी गुड़िया, अच्छी भली देवम के
डॉल-बॉक्स में आराम कर रही थी, पर उदास थी। और आज वह बहुत खुश थी, आज उसे उसका सही
कद्र-दान जो मिला है।
गुड़िया का तो जीवन ही रोते बच्चों
को हँसाना, उनके आँसू पोंछ कर उनको खुशियाँ देना ही होता है। आज उसका जीवन धन्य हो
गया। युगों-युगों की उसकी साधना सफल जो हो गई थी। आज वह किसी के जीवन में खुशियाँ
भर पाई थी।
हँसते को रुलाना तो बहुत आसान होता
है पर रोते को हँसाना बेहद मुश्किल। और गुड़िया ने इस बेहद मुश्किल काम को बड़ी
आसानी से कर दिखाया।
देवम और शुभम सभी खिलौने रजत और
पारो को दे कर अपने घर आ गये।
देवम ने मम्मी को सब कुछ बताया।
उनके मन में बहुत खुशी थी।
उधर लोगों ने बताया, काफी रात गये
तक रजत के झोंपड़े से कभी तो गाने की आवाजें आतीं तो कभी बाजा बजने की आवाजें
सुनाई देतीं रहीं। बच्चों का शोर भी सुनाई देता रहा।
शायद पारो और रजत को देर रात तक
नींद नहीं आई होगी। और नींद भी आये तो कैसे, आखिर खुशी में नींद किसे आती है ?
सुबह जब पारो की माँ ने देखा तो
पारो सोई पड़ी थी, उसके हाथ में गुड़िया थी। गुड़िया भी सोच रही होगी कि कब पारो
जगे और वह उसका पेट दबाये तो फिर वह गाना गाना शुरू करे। और रजत के हाथ में बाजा,
बजने को आतुर। बस एक फूँक के इन्तजार में।
माँ के लाख उठाने की कोशिश करने के
बाद भी रजत और पारो नहीं उठे, तो नहीं ही उठे। माँ तो काम पर चली गई, पर पारो और
रजत काफी देर तक सोते रहे। मीठी-मीठी नींद लेते रहे।
शाम को देवम ने सभी बातें जब पापा
को बताईं तो उन्हे बहुत अच्छा लगा। देवम के पापा, विवेक जी सामाजिक कार्यों में
रुचि रखने वाले नेक दिल इन्सान हैं। वे सदैव गरीबों और जरूरतमंद लोगों की सहायता
करते रहते हैं। साथ ही वे कई सेवा-भावी संस्थाओं से भी जुड़े हुए हैं।
वे आर्य समाज सेवा समिति के स्थायी
सदस्य भी हैं। यह समिति शहर में वैल्फेयर, समाज कल्याण एवं दलित-वर्ग के उत्थान के
लिए कार्य करती है। समाज कल्याण के साथ-साथ सांस्कृतिक एवं धार्मिक कार्यक्रमों का
भी आयोजन भी समिति के द्वारा किया जाता है। बर्ष में एक बार तो कवि-सम्मेलन का
आयोजन होता ही है। जिसमें अखिल भारतीय स्तर के कवियों को आमंत्रित किया जाता है।
उन्होंने देवम की मम्मी से कहा, “ इन्हें बुला कर पता करो कि ये लोग कौन हैं ? और
कैसे हैं ? यदि ये लोग वास्तव में सहायता के योग्य हैं तो
फिर विचार करेंगे। ”
देवम की मम्मी ने देवम को भेज कर
पारो की माँ को यह सन्देशा भिजवाया कि आज शाम को मम्मी ने घर पर बुलाया है। पारो
की माँ काम पर गई थी अतः देवम रजत को सूचना दे कर वापस आ गया।
शाम को रजत, पारो और पारो की माँ
देवम के घर पर पहुँचे। पारो के हाथ में गुड़िया तो थी पर अब वो गाना नहीं गा रही
थी। उसने गाना गाना बन्द कर दिया था।
देवम ने पारो से पूछा, “ कैसी हो पारो ? गुड़िया का गाना-वाना तो सुनवाओ ? ”
“ गुड़िया गाना नहीं गाती। ” उदास मन से पारो ने कहा।
“ क्यों, क्या हुआ ? ” आश्चर्यचकित हो देवम ने पूछा।
“ भैया कह रहा था कि गुड़िया
गुस्सा हो गई है, अब वह गाना नहीं गायेगी। ” पारो ने कहा।
देवम की मम्मी की हँसी छूट पड़ी। वे
समझ गईं और उन्होंने देवम को सोसायटी के डिपार्टमेंटल स्टोर्स से सैल लाने के लिये
भेज दिया।
और पारो से कहा, “ मैं अभी इसे ठीक करवा देती हूँ। फिर ये खूब गाना गायेगी। ”
थोड़ी देर में सैल बदलते ही गुड़िया
ने फिर से गाना गाना शुरू कर दिया।
पारो की खुशी फिर से लौट आई। देवम
की मम्मी ने पारो से कहा, “ जब गुड़िया गुस्सा
हो जाये तो उसे यहाँ पर ले आना मैं मना कर फिर तुम्हें दे दूँगी। ” और पारो खुश थी, उसकी रूठी हुई गुड़िया जो मन गई थी।
इसी बीच में देवम की मम्मी ने पारो
की माँ के बारे में सभी जानकारी प्राप्त कर लीं।
देवम की मम्मी को लगा कि इस परिवार
की सहायता की जाये तो ठीक ही रहेगा। और देवम का भी यही विचार था।
दूसरे दिन विवेक जी ने समिति के
समक्ष इस परिवार की सहायता का प्रस्ताव रखा। समिति के अन्य सदस्यों ने भी विवेक जी
के प्रस्ताव का समर्थन कर दिया। साथ ही हर सम्भव सहायता देने का आश्वासन भी दिया।
रजत और पारो की पढ़ाई, किताबें,
ड्रेस, फीस आदि का पूरा खर्च करने के लिये समिति तैयार हो गई थी। जो भी खर्च होगा,
उसका बिल समिति में देने पर, पैसा समिति से प्राप्त हो जायेगा। ऐसा निश्चय किया
गया।
पारो की माँ को जब पता चला कि अब
उसके रजत और पारो भी पढ़ सकेंगे तो उसकी खुशी का ठिकाना ही न रहा। उसकी आँखों से
आँसू छलक रहे थे, वह हँस रही थी या रो रही थी, किसी को पता न था। पर हाँ, हँसने या
रोने की आवाज तो, नहीं ही आ रही थी। मौन पलों का स्पन्दन था उसके व्याकुल मन में।
पारो का मन अब गुड़िया का गाना
सुनने को व्याकुल नहीं हो रहा था। अब उसके मन में ना तो नाचने की तमन्ना थी और ना
ही गेंद से खेलने की प्रवल इच्छा। अब तो बस एक छटपटाहट थी, उसके मन में। आकाश को
छूने की।
पारो के हाथ अब उस पेंन्सिल और रबड़
को पाने के लिये लालायित थे, जिससे कि वह अपने पथरीले ललाट पर, विधाता के लिखे लेख
को मिटा कर कुछ ऐसा लिख सके जो कि उसे इस अंधेरी काल-कोठरी से निकाल कर सुनहरे कल
की ओर ले जा सके।
सुदामा के ललाट पर लिखे हुये, श्री
क्षय को मिटा कर यक्ष श्री लिखने वाले, हजारों हाथ वाले, जब द्रोपदी की पुकार को
सुनकर नंगे पाँव दौड़े-दौड़े आ सकते हैं, तो पारो की पुकार कैसे निष्फल जा सकती है
?
हम उसे बुलाने में देर कर देते हैं
पर वह आने में कभी भी देर नहीं करता। पारो को उसकी याद सात साल बाद आई। पर
परीक्षित ने तो उसे गर्भ में ही बुला लिया था और अश्वत्थामा का ब्रह्मास्त्र, उसका
कुछ भी न बिगाड़ पाया था। जिस पर उस कृपानिधान की कृपा हो, उसका कौन, क्या बिगाड़
सकता है ?
इतिहास साक्षी है, समय ने विधाता के लिखे लेखों
को मिटते हुये देखा है। और इतिहास का पुनरावर्तन होना, कोई नई बात तो नहीं है।
और जब नियत साफ हो और मन में दृढ
विश्वास हो तो पथ और पथ-प्रदर्शक अपने आप ही सामने से आ जाते हैं। पारो के जीवन
में भी देवम जैसे देवता का आना किसी चमत्कार के प्रारब्ध से कम तो नही।
गेंद चाहे कालीदह में गिरे या
सोसायटी कम्पाउड के बाहर, पारो के झोंपड़े के पास। उसे तो अपने लक्ष्य पर ही गिरना
है। उसे तो किसी के उद्धार का प्रारब्ध ही बनना है। फिर चाहे वह कालिका नाग हो या
फिर श्री क्षय पारो।
और पारो भी तो माँ सरस्वती के पावन
मन्दिर में प्रवेश करना चाहती है। नारी शूद्रो न धीयताम्, आखिर कब तक और चलेगा ? वेदों के मंत्र और ऋचाओं को आखिर पारो से कब तक दूर रखा जा सकेगा ?
गरीब और श्री क्षय लोगों को आखिर कब
तक, माँ सरस्वती के पावन मन्दिर में प्रवेश से वंचित रखा जायेगा ? क्या माँ लक्ष्मी जी की कृपा के बिना माँ शारदे की आराधना सम्भव नहीं हो
सकेगी ?
पारो और रजत के कदम तो सुनहरे कल की
ओर चल पड़े, पर अभी तो बहुत से पारो और रजत को आज भी किसी देवम का इन्तजार है।
देवम के पापा ने रजत और पारो का
पास ही के एक अच्छे स्कूल में एडमीशन करवा
कर फीस भर दी। स्कूल से ही ड्रेस का कपड़ा, किताबें आदि खरीद कर बच्चों को दे दीं।
स्कूल आने-जाने के लिए रिक्शे की व्यवस्था कर दी गई थी।
और अब रजत और पारो ने स्कूल जाना
शुरू कर दिया। स्कूल में सब कुछ नया-नया, नये दोस्त, नये शिक्षक और नया वातावरण,
सब के साथ तालमेल बैठाना, मुश्किल नही तो आसान भी नही था पारो और रजत के लिये। जब
प्रबल इच्छा हो और मन में दृढ विश्वास, तो कोई भी काम मुश्किल नहीं होता है। अपने
काम के प्रति समर्पित व्यक्ति रास्ते नहीं मंजिल देखा करते हैं और मंजिल उनके
कदमों में होती है। अर्जुन ने कब चिड़िया को देखा था, उसे तो बस आँख की पुतली ही
दिखाई दी थी।
अपने मधुर स्वभाव, सरलता और ईमानदारी के कारण
रजत और पारो ने टीचर और अपने साथियों के बीच अच्छा स्थान बना लिया।
देवम आज बहुत खुश था और पारो आज
गुड़िया का गाना नहीं सुन रही थी, आज तो वह खुद ही गाना गुनगुना रही थी। और श्री
क्षय से यक्ष श्री होने का प्रयास कर रही थी।
***
-आनन्द विश्वास
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