Wednesday, 8 September 2021

“एक आने के दो समोसे”

इस बाल कहानी को पढ़िए भी और सुनिए भी..
(इस कहानी को दिल्ली एन.सी.आर. में कक्षा-7 की हिन्दी की 
पाठ्य-पुस्तक "प्रणयन" में समाविष्ट किया गया है।)
बात उन दिनों की है जब एक आने के दो समोसे आते थे और एक रुपये का सोलह सेर गुड़। अठन्नी-चवन्नी का जमाना था तब। प्राइमरी स्कूल के बच्चे पेन-पेन्सिल से कागज पर नही, बल्कि नैज़े या सरकण्डे की बनी कलम से खड़िया की सफेद स्याही से, लकड़ी के तख्ते की बनी हुई पट्टी पर लिखा करते थे।
वो भी क्या दिन थे जब पट्टी को घुट्टे से घिस-घिसकर चिकना किया जाता था। उस लिखने में मजा ही कुछ और था। पट्टी की एक तरफ एक से सौ तक की गिनती और दूसरी तरफ दो से दस तक के पहाड़े लिखकर मास्टर जी को दिखाकर, उसे पानी से धो दिया जाता था। और फिर पट्टी की मुठिया को पकड़कर हवा में जोर-जोर से हिला-हिलाकर सुखाया जाता था। और साथ ही साथ गाने का आनन्द भी तो उतना ही अच्छा लगता था जब क्लास के सभी बच्चे गाना गाते थे और गाना गा-गाकर पट्टी सुखाते थे। सब को याद था ये गाना..
सुख-सुख  पट्टी, चन्दन  घुट्टी,
राजा  आयेमहल  बनाया।
महल के ऊपर  छप्पड़ छाया,
छप्पड़ गया टूट,पट्टी गई सूख।
हाँलाकि इस गाने का अर्थ तो आज तक मुझे पता नहीं चल पाया। पर हाँ, इतना जरूर था कि पट्टी सूख तो जरूर जाती थी। पता नहीं, हो सकता है, इसके पीछे कोई तर्क रहा हो। पर कोई बात तो जरूर ही रही होगी अपने बुगुर्जों के कार्य करने की शैली या उनकी बुध्दिमत्ता पर जरा भी संशय करना या प्रश्न उठाना, उचित सा नहीं लगता। शायद बच्चों को गीत-संगीत को सिखाने उद्देश्य रहा हो।
आज जैसे गाने तब शायद नहीं थे। जौनी-जौनी यस पापा या बाबा ब्लैक शीप या टिंक्वल-टिंक्वल लिटल स्टार जैसे गानों का प्रचलन ही कहाँ था तब। अंग्रेज और अंग्रेज़ियत का प्रभाव, इतना तब नहीं था जितना अब और आज है। तब हिन्दुस्तान और हिन्दुस्तानियत की बू गर्व मानी जाती थी, जितनी कि आज अंग्रेज़ियत की बू।
और जब पट्टी सूख जाती, तो उसे घुट्टे से घिस-घिस कर चिकना करने और फिर कलम से लिखने में जो आनन्द आता था वह आनन्द आज के लैपटॉप या कम्प्यूटर की की-बोर्ड पर अँगुलियाँ घुमाने में कहाँ ? नैज़े की कलम से, खड़िया की सफेद स्याही को बुदक्के में भरकर, बार-बार कलम को डुबा-डुबाकर एक-एक अक्षर को मोती-सा टाँकना, कितना मन-भावन होता था। और वह भी टाट के बोरे पर बैठकर। कोई फर्नीचर नहीं, कोई सीटिंग एरेंजमेंट नहीं, जहाँ बोरा बिछा दिया, बस बन गया वहीं क्लास-रूम।
और रिसेस के बाद तो पूरे स्कूल की सभी कक्षाऐं दो भागों में बँट जाती थीं और फिर शुरू हो जाता था, दो से पच्चीस तक के पहाड़ों का बोलना। एक टीम बोलती, दो एकम दो तो दूसरी बोलती, दो दूना चार...और इसके बाद फिर ढ़इय्या, अध्धा, पौना और सबैय्या। सबको सब कुछ तोते की तरह रटे पड़े थे। रोज़ाना जो बोलने पड़ते थे। दिमाग ही कैलक्यूलेटर और कम्प्यूटर बन जाता था।
गलती करने पर पाँच सन्टी की सजा तो सामान्य सजा ही मानी जाती थी, शीशम की सन्टी का ही प्रचलन था तब और हर सन्टी पर चींख-सी निकल जाती थी बालकों की। पर मज़ाल है कि कोई वाली आकर कह दे कि मास्टर जी आपने मेरे बालक को क्यों मारा? हाँ, ऐसा तो जरूर कहने आते थे कि मास्टर जी अगर ये कोई गलती करे तो इसे मार-मार कर सुधारिये। इसे अपना बच्चा ही समझिये। आत्मीयता भी थी तब और कर्तव्य का बोध भी।
और इतना ही नहीं, इससे बड़ी सजा होती थी मुर्गा बनाने की। यानी अगर गलती करोगे तो फिर मनुष्य योनी से मुर्गा-योनी में प्रवेश। और कुछ समय के लिये मुर्गा बना दिया जाता था। और कभी-कभी तो निर्जीव कुर्सी भी बना दिया जाता था और उस बाल-कुर्सी पर किसी बालक को बैठा भी दिया जाता था या फिर सिर पर ईंट रख दी जाती थी और ईंट गिरने पर फिर वही पाँच सन्टी की सजा। जी हाँ, वही शीशम की सन्टी। चरित्र-निर्माण और न्याय के साथ कोई समझौता नही किया जाता था। निष्पक्ष न्याय होता था मास्टर जी के दरबार में।
मैं पाँचवीं कक्षा में पढ़ता था। यूँ तो मेरी गिनती स्कूल के अच्छे बच्चों में होती थी और सभी शिक्षकों का स्नेह मेरे ऊपर रहता था फिर भी मुझे सबसे अधिक डर लगता था तो वो थे मेरे स्कूल के हैड-मास्टर साहब और हैड मास्टर साहब, अगर सबसे अधिक किसी को प्यार करते थे, तो वह मैं था।
कारण मुझे पता नहीं, पर मैं तो यह ही मानता था कि मैं पढ़ने में होशियार हूँ और हैड मास्टर जी का सब काम दौड़-दौड़ कर कर देता हूँ। मसलन चॉक लेकर आना या बोर्ड को साफ करके रखना या फिर जब कभी उनका आदेश होता तो बाहर लगे हैन्ड-पम्प से ठन्डे-ठन्डे पानी का गिलास भरकर ले आना। पानी तो वे अक्सर मेरे हाथ का ही पिया करते थे। और मैं भी पानी लाने में साफ-सफाई का बहुत ध्यान रखता था शायद इसलिये या और कुछ। पर कारण का मुझे पता नहीं।
उन्हीं दिनों म्युनिस्पलटी के चुनाव होने वाले थे और प्राइमरी स्कूलस् म्युनिस्पल बोर्ड के अन्तर्गत आते थे। चुनाव सम्बन्धी कार्य प्राइमरी स्कूलस् के टीचर्स और हैड-मास्टर्स को सोंपे गये थे। और सभी शिक्षकों को निर्धारित वार्ड में जाकर चुनाव की वोटिंग पर्चियों को बाँटना तथा अन्य कार्य सोंपे गये थे। हैड मास्टर साहब को जो वार्ड सोंपा गया था उसी वार्ड में मेरा घर था। और यह सब काम स्कूल छूटने के बाद ही करना होता था।
शाम का समय था घर के बाहर चौक में मैं अपने साथियों के साथ खेल रहा था। और इसी समय हैड मास्टर साहब का आना हुआ, हैड मास्टर साहब को देखते ही खेल तो तुरन्त बन्द हो गया और सभी साथी, जिज्ञासा-वश हैड मास्टर साहब के पास पहुँच गये। पर मैं दौड़ कर घर पहुँचा और माता जी को बताया कि मेरे स्कूल के हैड मास्टर साहब बाहर आये हुये हैं अतः वे घर से बाहर न निकलें और घर के अन्दर ही रहें।
उन दिनों पर्दा-प्रथा का प्रचलन था। और मेरे संस्कारों के हिसाब से मेरी माता जी को हैड मास्टर साहब के सामने जाना सर्वथा अनुचित ही था। अतः मैं अपनी माता जी के पैरों से लिपटकर धक्का देते-देते उन्हें दरवाजे के अन्दर ले जाने का प्रयास करने लगा। यह सोचकर कि अगर मेरे हैड मास्टर साहब ने मेरी माता जी को देख लिया तो लोग क्या कहेंगे।
और उधर जितनी तेजी से मैं माता जी के पैरों से लिपटकर उन्हें घर के अन्दर की ओर धक्का दे रहा था उससे दुगनी तेज गति से हैड मास्टर साहब मेरी माता जी की ओर बढ़े आ रहे थे। इतनी स्फूर्ति मैंने हैड मास्टर साहब में कभी भी नहीं देखी थी। इस दौड़ में, मैं तो हार ही गया और हैड मास्टर साहब अपने लक्ष्य पर पहले पहुँचने में सफल हो गये। और हैड मास्टर साहब ने झुककर माता जी के पैर छू ही लिये। गले से लगा लिया था हैड मास्टर साहब को, माता जी ने। आशीर्वाद की बर्षा हो रही थी।
मैं कभी हैड मास्टर साहब को, तो कभी माता जी को, और कभी अपने आप को देख रहा था। क्या माज़रा है कुछ भी तो समझ में नहीं आ रहा था। मेरे स्कूल के हैड मास्टर साहब, जिनकी छाया मात्र से ही, मैं थर-थर काँपने लगता था, वे हैड मास्टर साहब, मेरी माता जी के पैर छूकर आशीर्वाद प्राप्त कर रहे हैं।
समझ नहीं आ रहा था कि मेरे हैड मास्टर साहब धन्य हैं या मेरी माता जी धन्य हैं या फिर मैं।
पर धन्य तो हमारी भारतीय संस्कृति है जिसने हमें ऐसे संस्कार दिये। हम उन्हें भूल ही जायें तो इसमें संस्कृति का क्या दोष।
"कैसे हो बेटा, सब ठीक-ठाक है न। इधर काफी समय से मिले नहीं। कोई परेशानी तो नहीं है।" माता जी ने बड़े ही स्नेहिल भाव से हैड मास्टर साहब से पूछा।
"बस, माता जी आपका आशीर्वाद है। गाँव गया था, बेटी की शादी कर दी है, लड़का गाँव में ही लेखपाल है। बाकी सब ठीक है।" हैड मास्टर साहब ने माता जी से कहा।
"चलो अच्छा हुआ बेटा, एक जिम्मेदारी तो पूरी हुई। कभी-कभार तो घूम जाया कर, चिन्ता बनी रहती है।" माता जी ने प्यार भरे लहज़े में कहा।
माता जी से मिलने के बाद हैड मास्टर साहब, अपने चुनाव के कामों में व्यस्त हो गये। मुहल्ले में चुनाव की पर्चियाँ बाँट कर चले गये। पर आज तक वे मेरे मन से नहीं जा सके। और विनम्रता का पाठ सिखा गये। हैड मास्टर साहब ने मेरी माता जी के पैर क्या छुये, मेरे मन को ही छू लिया।
मैंने माता जी से पूछा तो उन्होंने बताया-"बेटा, तेरे हैड मास्टर साहब को, तेरे पिता जी ने पढ़ाया था इसलिये वे मेरे पैर छूते हैं। मैं उनकी गुरु-माँ हूँ न।"
और तब मैं समझ पाया था गुरू और माँ की महिमा को। सच में, माँ तो आखिर माँ ही होती है।
दूसरे दिन स्कूल पहुँच कर सबसे पहले मैंने गुरू जी के पैर छुए थे, सच में मैंने पैर ही नहीं, उनका हृदय छू लिया था। भरी क्लास में गोदी में उठाकर, गले से लगा लिया था हैड मास्टर साहब ने। बज्र-सा हिमालय पानी-पानी होते देखा था उस दिन मैंने और मेरी आँखों से गंगा ही तो वह निकली थी। और तब मैंने जाना था कि आशीर्वाद की गंगा तो चरणों से ही निकलती है और धारण की जाती है ललाट पर।
***  
-आनन्द विश्वास

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