*पर-कटी
पाखी*
(प्रस्तुत
कहानी मेरे बाल-उपन्यास *पर-कटी पाखी*
से
ली गई है। जिसे डायमंड बुक्स, दिल्ली
से प्रकाशित किया गया है।)
...आनन्द
विश्वास
कल से ही तो चालू होने वाले हैं
पाखी के प्रिलिम ऐग्ज़ामस्। पढ़ते-पढ़ते मन बदलने के लिये वह टैरस पर आ गई। ऊपर
आकाश पतंगों से अटा पड़ा था और नीचे टैरस लोगों से। ऐसी कोई भी छत न थी जिस पर कि
दस-बीस लोगों का जमावड़ा न हो।
उत्तरायण
का पर्व जो था, अपने चरम पर। और उसके अड़ौस-पड़ौस के सभी लोग अपनी-अपनी पतंगों को
ऊँचे से ऊँचा उड़ाने में और दूसरों की पतंगों को काटने में प्रयत्न-शील थे। सभी ओर
से बस एक ही तो आवाज़ आ रही थी और वो थी, वो काटा..., वो काटा... और वो काटा।
बच्चों
का शोर और वो भी लाउड-स्पीकर्स पर। आकाश को फाड़कर रख देने वाला शोर। क्या बच्चे,
क्या बूढ़े और क्या जवान। सब के सब मस्त थे, बस अपने आप में, अपनी धुन में और अपने
आकाश में। कोई पतंगों को उड़ाने में, तो कोई पतंगों को काटने में, तो कोई कटी हुई
पतंगों को लूटने में।
और
कुछ लोग तो कुर्सी पर या फिर धरती पर ही अपनी चटाई या कम्बल पर बैठ कर सूर्य के
कोमल प्रकाश को अपने रोम-रोम में आत्मसात् करने का प्रयास कर रहे थे। उत्तरायण का
पर्व जो था, देवी-देवताओं का प्रभात-काल और भगवान भास्कर की उपासना का मंगल-मय,
मन-भावन पावन-पर्व, उत्तरायण।
हाँ,
आज के दिन की ही तो प्रतीक्षा थी, कुरुक्षेत्र में युद्ध के मैदान पर, शर-शय्या पर
लेटे हुये, इच्छा-मृत्यु के धनी, गंगा-पुत्र भीष्म पितामह को। आज ही के दिन तो
भगवान सूर्य नारायण, दक्षिणायन से उत्तरायन में प्रवेश करते हैं।
और
यही कारण था कि गंगा-पुत्र भीष्म पितामह ने भी उत्तरायण के पुनीत-पावन-पर्व पर ही
अपने पंच-तत्व निर्मित नश्वर मानव शरीर को त्यागना उचित समझा। और इसीलिये तो आज का
दिन पूजा-पाठ, भजन-पूजन, दान-पुण्य, ध्यान-योग और प्राणायाम आदि के लिये विशेष
महत्व रखता है।
यूँ
तो भोजन और भजन दोनों ही एकान्त में उत्तम माने जाते हैं। पर आज तो भोजन और भजन
दोनों ही, अपने भगवान भास्कर के सान्निध्य में, नीले आकाश के तले, दिन के उजाले
में, टैरस के ऊपर, सबके साथ और सबके सामने हो रहे हैं।
कहीं
ऊँधियु-जलेबी है, तो कहीं गाँठिया, पापड़ी, फाफड़ा, पात्रा, समोंसा, मसाला-कचौड़ी,
कांधा-कचौड़ी और आलू-बेसन के पकौड़े हैं। और कहीं मरी-खम्मण, नायलोन-खम्मण,
खम्मणी, ढ़ोकला, सेन्डबिच-ढ़ोकला और फुलवड़ी के साथ चटाकेदार बेसन की कढ़ी-चटनी है
तो कहीं तिल-पापड़ी और तिल के लड्डू के साथ सींग-चना, ममरा, खाखरा, थेपला और
मठिया। दालबड़ा और मेथी के गोटे की तो बात ही कुछ अलग है। और कहीं सूखे-मेवे,
काजू, किसमिश, पिस्ता, बादाम, अखरोट और अंजीर हैं।
आज
पूरे दिन छत पर जो रहना है। इसलिये तो ये सब कुछ जरूरी भी है। आज के दिन सभी लोग
अपना अधिक से अधिक समय अपने भगवान भास्कर के सान्निध्य में ही गुजारना चाहते हैं।
भगवान भास्कर के कोमल प्रकाश की ऊर्जा-युक्त किरणों को अपने रोम-रोम में आत्मसात्
कर, अपना तन और मन ही नहीं अपितु अपना सारा जीवन ही ऊर्जा-युक्त, निर्मल और पावन
बनाना चाहते हैं।
और
ऐसे रोमांचक, मंगल-मय, पावन-पर्व के मन-भावन वातावरण में पाखी के प्रिलिम
ऐग्ज़ामस्।
थोड़ी
ही देर बाद, फिर से पढ़ने का मन बनाकर, पाखी टैरस से नीचे उतर ही रही थी कि उसके
पीछे *थप्प* की एक जोरदार आवाज़ हुई और वह चौंक पड़ी। उसने पीछे मुड़कर देखा, तो
एक चींख-सी निकल कर रह गई थी उसकी। अरे...,रे..., हाय...,ई.ई.ई., अरे ये क्या...,
अरे ये क्या हुआ।
एक
छोटी-सी मासूम चिड़िया और वह भी खून से लथपथ, घायल अवस्था में, पाखी के पीछे, आकाश
से छत पर आ गिरी थी और असहाय बेदम-सी फड़फड़ा रही थी वह। शायद एक पंख ही कट गया था
उसका, पतंग के तेज धागे से।
और
कटा हुआ वह पंख, कटी-पतंग सा उड़ता-उड़ता, कहाँ पर जा गिरा होगा, यह तो बता पाना
बेहद मुश्किल होगा। पर हाँ, बेचारी बेदम अबोली भोली घायल *पर-कटी चिड़िया*, यहाँ
पाखी के घर की छत पर पड़ी-पड़ी तड़फ तो जरूर ही रही थी। और उसके आस-पास बिखरा पड़ा
था खून ही खून।
शायद अपनी जिन्दगी की अन्तिम साँसें गिन रही थी
वह। एक तो पंख के कटने की कष्ट-दायक वेदना और दूसरे इतनी ऊँचाई से गिरने की असहनीय
चोट। दोनों ही उसे यमपुरी तक पहुँचाने के लिये पर्याप्त थे।
एक
क्षण के लिये तो पाखी कुछ सोच भी न पाई थी कि अब क्या करे वह। और दूसरे ही क्षण
उसने, खून से लथपथ, फड़फड़ाती हुई, उस मासूम *पर-कटी चिड़िया* को अपने हाथों में
उठा लिया। और फिर अपने दुपट्टे से उसके खून को पोंछते हुये, तेज गति से वह टैरस से
नीचे उतर आई।
उसने
मम्मी को जल्दी से हल्दी लाने को कहा। घाव पर हल्दी लगाने से खून का रिसाब तो
थोड़ा-बहुत कम हो गया था। पर, पर कटने की वेदना को तो चिड़िया ही जाने।
मम्मी,
मैं डॉक्टर अंकल के पास जा रही हूँ। ऐसा कहकर वह, घायल *पर-कटी चिड़िया* को अपने
हाथों में लिये हुये, दौड़ पड़ी थी अपने डॉक्टर अंकल के दवाखाने की ओर।
डॉक्टर
अंकल, उसकी क्लास-मैट पलक के पापा और उसके पापा के बचपन के ज़िगरी दोस्त, डॉक्टर
गौरांग पटेल।
पाखी और पलक दोनों एक ही क्लास में साथ-साथ
पढ़ते थे। दोनों पक्के दोस्त भी थे और एक ही सोसायटी में रहते भी थे। पाखी पढ़ने
में नम्बर वन तो पलक गेम्स्-स्पोर्टस् में नम्बर वन। और दोनों की दोस्ती भी थी
स्कूल में नम्बर वन।
सभी
लोग इन दोनों की दोस्ती का उदाहरण दिया करते थे और कहते भी थे कि दोस्ती हो तो
पाखी और पलक जैसी। बिलकुल दूध और पानी जैसी दोस्ती, पूर्ण-समर्पित दोस्ती। एक
दूसरे के लिये जान देतीं थीं, दोनों सहेलियाँ।
कभी-कभी
मत-भेद भी होता था दोनों में, पर मन-भेद तो कभी भी नहीं। और ऐसी ही दोस्ती थी पलक
के पापा और पाखी के पापा की भी। दोनों बचपन के जिग़री दोस्त जो ठहरे। उनका बचपन भी
साथ-साथ ही गुजरा था। साथ-साथ ही पढ़े-लिखे, खेले-कूदे और बड़े हुये और अब तो रहते
भी साथ-साथ ही हैं, एक ही सोसायटी में पास-पास।
पाखी
के हाथों में खून से लथपथ घायल चिड़िया को देखते ही डॉक्टर अंकल को सब कुछ समझने
में देर न लगी और उन्होने शीघ्र ही नर्स-स्टाफ की सहायता से घायल चिड़िया के उपचार
की उचित व्यवस्था की। डॉक्टर गौरांग पटेल के द्वारा हर सम्भव आधुनिक उपचार किया गया
था घायल चिड़िया का।
घायल,
बेहोश और बेदम चिड़िया, इलाज के लगभग दो-ढाई घण्टे के बाद जब फड़-फड़ाई थी, तब
कहीं जाकर डॉक्टर अंकल, नर्स-स्टाफ और पाखी ने चैन की साँस ली थी। सभी लोग अपार
खुशी का अनुभव कर रहे थे।
सबका
मानना था कि अगर पाखी शीघ्रता के साथ घायल चिड़िया को लेकर अस्पताल तक न पहुँची
होती तो शायद उसे निराशा ही हाथ लगी होती। अनेक व्यक्ति दुःखी भी हुये होते और
सबसे अधिक तो शायद पाखी ही।
दो
दिन तक घायल चिड़िया की दवाखाने में ही दवा-दारू और देखभाल की गई। डॉक्टर अंकल और
नर्स-स्टाफ के अथक परिश्रम और प्रयास के परिणाम-स्वरूप ही चिड़िया को बचाया जा
सका। पर उसके देखभाल, विश्राम और इलाज की तो अभी भी आवश्यता थी ही।
और
जब तक उसके रहने, खाने-पीने की कोई सुरक्षित, सन्तोष-जनक और उचित व्यवस्था न हो
जाये तब तक तो उसे अस्पताल में ही, डॉक्टर अंकल और नर्स-स्टाफ की देख-रेख में रखना
उचित समझा गया।
अस्पताल
में भी सभी लोगों की सहानुभूति और दया की पात्र थी वह। और इस घटना के प्रति सभी को
अफसोस भी था।
चलो,
बेचारी चिड़िया तो बच गई और पाखी ने उसे बचा भी लिया। पर अब, अब ये बेचारी मासूम
*पर-कटी चिड़िया*, कैसे जी पायेगी अपनी जिन्दगी के शेष दिन और कैसे काट पायेगी ये,
अपनी जिन्दगी की शेष भयावह रातें।
कोई
पैसे वाली बड़ी आसामी रही होती, तो पैसे के पंख लगाकर उड़ लेती। कोई चार्टर-प्लेन
ही ले लेती और अपने घर पर ही लैंडिंग की सुविधा भी बना लेती। आगे-पीछे घूमने वाले
हजारों नौकर-चाकर भी मिल जाते इसको। और अपनी जिन्दगी के शेष दिनों को भी बड़े ऐश
और आराम के साथ पसार भी कर लेती यह। और इतना ही नहीं, शान और सम्मान के साथ जी भी
लेती।
पर
इसका तो दूर-दूर तक, पैसे से कोई लेना-देना भी नहीं है। और ये बेचारी, ये बेचारी
तो ये भी नहीं जानती कि क्या होता है पैसा, कैसा होता है पैसा, कहाँ से आता है
पैसा, कैसी होती है पैसे की ये चकाचौंध-दुनियाँ और कैसी होती है पैसे की शक्ति।
इसे
तो ये भी नहीं मालूम कि पैसे की महिमा कितनी अपरम्पार होती है। ये तो ये भी नहीं
जानती कि पैसा ही तो आज का खुदा है इस संसार में। जिसके पीछे सारी दुनियाँ ही
पागल-सी दौड़ती फिरती है।
और
आज, आज की तारीख़ में, ना तो इसके पास पैसा ही है, ना ही इसके पास कहीं से पैसा
आने वाला है और ना ही इसे कोई पैसा देने वाला है। और पैसे के बिना तो
*कृत्रिम-पंख* भी नहीं लगवा सकती है ये बेवश, बेचारी *पर-कटी चिड़िया*। तो फिर
कैसे उड़ सकगी ये बेचारी अपने आकाश में, बिना पंख के।
कृत्रिम-पंख
के निर्माण के क्षेत्र में, यदि पैसा बनाने की थोड़ी बहुत भी सम्भावनाऐं रही
होतीं, तो वैज्ञानिकों ने और उद्योगपतियों ने जरूर ही इस क्षेत्र में प्रयास किया
होता और एक से एक अच्छे कुशल अनुभवी वैज्ञानिक और आविष्कारक ही नहीं, बल्कि हजारों
जानी-मानी हस्तियाँ और कम्पनियाँ भी आ चुकी होतीं, इस *कृत्रिम-पंख* के निर्माण के
क्षेत्र में अब तक।
देशी-विदेशी
हजारों कम्पनियों की तो होड़ ही लग गई होती, अपने-अपने आकर्षक, लुभावने प्रोडक्टस्
को लॉन्च करने के लिये और वह भी स्पेशल डिस्काउन्ट ऑफर के साथ, ज़ीरो परसेंन्ट
इन्ट्रेस्ट रेट पर और साथ में ढ़ेरों लुभावने, मन-भावन गिफ्ट ऑर्टिकिलस् तो
पक्के।
पर
दरिद्रनरायण श्री-क्षय पक्षियों के पास पैसा ही कहाँ होता है, जो लक्ष्मी-उपासक
यक्ष-श्री चंचल-मानव-मन को अपनी ओर आकर्षित कर सकें। शायद इसीलिये वैज्ञानिकों ने
कृत्रिम-पंख के निर्माण और अनुसंधान के क्षेत्र में न तो कभी कोई जिज्ञासा ही
दिखाई और ना ही कभी कोई ध्यान ही दिया।
स्वार्थी,
चंचल, चालाक, अहंकारी, मानव-मन ने, मोम के कृत्रिम-पंख बना कर, आकाश की ऊँचे से ऊँची
ऊँचाइयों को छुआ जा सकता है, यह दिव्य-ज्ञान तो प्राप्त कर लिया, इन अबोले भोले
पक्षियों से, इनके समाज से।
लेकिन
जिनसे प्रेरणा प्राप्त की और जिनका अनुसरण कर, आकाश की ऊँचे से ऊँची ऊँचाइयों तक
पहुँचने का दिव्य-ज्ञान प्राप्त किया, उसी समाज के पर-कटे और अंग-भंग पक्षियों के
समाज के बारे में कुछ भी तो नहीं सोचा, स्वार्थी, चंचल, चालाक मानव-मन ने,
मानव-समाज ने।
स्वार्थी,
मानव-मन ने तो अपने गुरूश्री को, गुरु-दक्षिणा तक भी देना उचित नहीं समझा। एकलव्य
ने तो अपने परम-पूज्य गुरुदेव की आज्ञा को शिरोधार्य कर, अपने दाहिने हाथ का
अँगूठा ही काटकर समर्पित कर दिया था अपने गुरूश्री के पावन-चरणों में। और
गुरु-भक्ति की पावन-परम्परा में एक ऐसा वन्दनीय और अभिनन्दनीय उदाहरण प्रस्तुत कर
दिया था, जिसे इतिहास युगों-युगों तक न भुला सकेगा।
कितना
अच्छा हुआ होता, यदि मानव समाज ने भी गुरु-भक्ति का कोई अतुलनीय उदाहरण प्रस्तुत
किया होता और गुरु-दक्षिणा के नाम पर कृत्रिम-पंख और कृत्रिम-अंगों को बनाने वाला
कोई छोटा-मोटा संस्थान ही खोल दिया होता।
और
उसमें पर-कटे, अंग-भंग पक्षियों के लिये कृत्रिम-पंख और अन्य कृत्रिम-अंगों के
प्लॉन्टेशन की सभी सुविधाऐं निःशुल्क उपलब्ध करा दी होतीं या फिर कोई
चैरीटेबल-ट्रस्ट ही खोल दिया होता तो अबोले भोले पक्षियों का ये समाज, युगों-युगों
तक देव-तुल्य मानव का सदा-सदा के लिये ऋणी हो गया होता।
और
तब, निश्चय ही, गुरु-भक्ति के पावन-सोपान में एकलव्य का नाम भी फीका पड़ गया होता
और मानव का यह गौरव-मयी दैवीय पर-जनहिताय सुकार्य मानव इतिहास के पन्नों में
स्वर्णिम-अक्षरों में लिखा गया होता।
पर,
परोपकार का मुखौटा लगाकर घूमने वाले इन स्वार्थी-वैज्ञानिकों के स्वार्थी-मन में,
कृत्रिम-पंख और कृत्रिम-अंग बनाकर, अबोले भोले पक्षियों को नई जिन्दगी देने की
बात, इनके गले से ही न उतर पाई। और इसीलिये इस दिशा में कोई भी प्रयास किया ही
नहीं गया और करें भी तो आखिर क्यों।
कृत्रिम-हृदय
और मानव-शरीर के ढ़ेरों कृत्रिम-अंगों को बनाकर तो पैसा बनाया जा सकता है और पैसा
कमाया भी जा सकता है। पर कृत्रिम-पंख बनाने से फायदा ही क्या है।
और
जिस काम के करने से पैसा न बनता हो, कोई फायदा न होता हो तो ऐसा काम करने की
मूर्खता, कौन बुद्धिमान व्यक्ति करना पसन्द करेगा।
करने
को तो क्या नहीं किया जा सकता है आज के इस वैज्ञानिक-युग में। आदमी चाँद और मंगल
तक पहुँच सकता है। पल भर में कहीं से कहीं तक पहुँच पाना आज के मानव का बांये हाथ
का खेल ही तो है। सागर की गहराइयों से आकाश ऊँचाइयों तक, सभी जगह पर तो आधिपत्य
है, आज के इस मानव का।
आज
के इस वैज्ञानिक युग में कृत्रिम मानव भी बनाया जा सकता है और मानव का क्लोन भी
बनाया जा सकता है। पर बुद्धिमान मानव ने कृत्रिम मानव या मानव क्लोन बनाने की
अपेक्षा बैंक के एटीएम-कार्ड का क्लोन बनाना अधिक उचित और उपयोगी समझा और वह बना
भी लिया।
बिना परिश्रम के ही जब पैसा बनता हो तो ऐसा करने
में हर्ज ही क्या है। स्वार्थी-संसार में अपने अलावा किसी दूसरे का भला करना या
करने की बात सोचना, मूर्खता नही तो और क्या है।
और
वैसे भी, इस बेचारी *पर-कटी चिड़िया* को तो विधाता भी अब कोई दूसरा नया पंख देने
वाले नहीं हैं। अब तो इसे अपना शेष जीवन ही *पर-कटी चिड़िया* के नाम से गुजारना
होगा। शायद विधि का विधान भी यही हो।
पर
कट जाने के कारण इसका शारीरिक सन्तुलन ही बिगड़ गया है। पंजों की सहायता से थोड़ा
बहुत ही बैठ पाती है अब यह। वह भी बड़ी मुश्किल से और कुछ समय के लिये ही।
अधिक
से अधिक समय तो यह एक करवट से ही पड़ी रहती है। करवट बदल कर दूसरी करवट से लेट भी
तो नहीं सकती ये।
अगर
इसे कुछ खिलाना-पिलाना ही हो तो इसको हाथ में उठाकर ही खिलाया-पिलाया जा सकता है
और वह भी बड़ी सावधानी के साथ। कहीं कोई दुःखती रग ही न छू जाये।
यह
*पर-कटी चिड़िया*, क्या अब चिड़िया कहलाने के लायक रह गई है। क्या इसे अब चिड़िया
कहा जा सकता है और क्या इसे अब पक्षियों की चिड़िया-श्रेणी में रखा जा सकता है। और
यदि हाँ, तो फिर पक्षियों के किस वर्ग में और किस जाति में रखा जा सकेगा, अब इसे।
कोई तो बताये।
मानव-समाज
में जरा-सा भी कहीं कोई धर्म-परिवर्तन या जाति-परिवर्तन हो जाये, किसी व्यक्ति या
किसी परिवार का, तब देखो समाज के इन सभ्य ठेकेदारों को, सारा का सारा ब्रह्माण्ड
ही अपने सिर पर उठाकर चिल्लाते फिरते हैं ये लोग।
हजारों
धर्म-गुरू, धर्म-उपदेशक और सभ्य-समाज के ये ठेकेदार, अपने-अपने धर्म की दुहाई देने
लगते हैं। घोर कलियुग, घोर कलियुग, ऐसा कहने से जरा भी परहेज़ नहीं करते। और आज
कहाँ हैं ये सब के सब, सभ्य-समाज के ठेकेदार।
आज
एक निर्दोष चिड़िया का जाति-परिवर्तन हो गया है, उसका वर्ग-परिवर्तन हो गया है। एक
निर्दोष चिड़िया को, उसी के, *चिड़िया-समाज* ने उसे अपनी जाति से बाहर कर दिया है।
और उसका एक मात्र कारण है तथाकथित सभ्य कहलाने वाला वह दुष्ट-मानव।
जिसने
अपनी पतंग के तेज धागे से, इस निर्दोष के पंख को काटकर, इसे पंख-विहीन बना दिया
है।
और
अब यह *पर-कटी चिड़िया* न तो चिड़िया कहलाने के लायक ही रह गई है और ना ही इसे अब
कोई चिड़िया मानने के लिये ही तैयार है।
लोग
तो कहते हैं कि जब ये उड़ ही नहीं सकती तो कैसी चिड़िया। चिड़िया-पक्षी की परिभाषा
के अनुसार तो इसे चिड़िया कहा ही नहीं जा सकता।
क्योंकि चिड़िया, चिड़िया तो एक ऐसे जीव का नाम
है जो आकाश को चीरते हुये, पवन-वेग से, पलक झपकते ही, पल भर में फुर्र से उड़कर,
कहीं से कहीं भी चली जाये।
आकाश
की ऊँचे से ऊँची ऊँचाइयों पर भी इधर से उधर फुदक-फुदक कर अपने तरह-तरह के अजब-गजब
करतब दिखाकर सबके मन को मोह लेने की क्षमता रखती हो।
और
आज अब, तरह-तरह के अजब-गजब करतब दिखा पाना तो इसके वश की बात रही ही नहीं है और ना
ही यह अब अपनी जिन्दगी में कभी उड़ ही सकेगी।
अब
तो यह केवल दया की पात्र बनकर रह गई है। अब तो ये चल भी नहीं सकती। और चलने की बात
तो बहुत दूर है, अब तो यह सही ढ़ग से खड़ी भी नहीं रह सकती।
अरे,
देखो तो जरा, दो कदम चलने में तो दस बार गिर जाती है ये। ये कैसी विचित्र बेढंगी
चिड़िया है।
ये
तो असन्तुलित शरीर का एक विचित्र जीव है। मात्र एक विकृत शरीर, हाड़-मांस का एक
जीवित लोथड़ा। इसके अलावा और कुछ भी तो नहीं।
अरे,
ये तो अपनी रक्षा भी नहीं कर सकेगी, अपने आप। कैसे बचा सकेगी अपने आप को ये, अपने
ही समाज के कौवे, बॉज़, गिद्ध, चील आदि से।
और
अपने ही समाज के क्यों, यहाँ तो हर समाज के ही तरह-तरह के भूखे-भेड़िये ताक लगाकर
बैठे ही रहते हैं, बगुला-भगत से, अपने-अपने शिकार की तलाश में।
जरा-सी
कहीं से कोई उड़ती खबर या कोई सुराग मिल जाये, बस, फिर देखो इन्हें और इनकी
गति-विधियाँ को, बाप रे बाप, कैसे नारकीय विहंगम दृश्य का अवलोकन होता है तब।
गली
के कुत्ते, पिल्ले, पिलियाँ, सूअर, बिल्ली, चूहे, कौवे, बॉज़, चील, गिद्ध और
ढ़ेरों छोटे-मोटे कीड़े-मकोड़े, चींटे-चींटियाँ, मक्खी-मच्छर सभी तो अपनी-अपनी
आपसी रंजिश और अदावट भूलकर, एक ही साथ मिल-जुल कर, सब के सब, छक कर खाते हैं। दावत
ही हो जाती है पूरे मोहल्ले में।
बिन
बुलाये ही पहुँच जाते हैं सब के सब, भोजन-गृह में। न कोई मेहमान होता है और ना ही
कोई मेज़वान। कोई रोक-टोक नहीं और सब कुछ
सैल्फ-सर्विस। अपने आप लाओ और अपने आप खाओ।
और
वैसे भी, मौका मिलने पर तो कौन छोड़ देता है अपने शिकार को। फिर चाहे वह परोपकारी,
सेवाभावी, देव-तुल्य सृष्टि का अनमोल रतन, मानव ही क्यों न हो। देवता से दानव और
दानव से देवता बनने में, देर ही कितनी लगती है, चंचल-मानव-मन को।
और
वैसे भी शैतान तो बैठा ही रहता है, चंचल-मानव-मन के किसी कोंने में। आये दिन होने
वाली ढ़ेर सारी घटनाऐं, क्या मानव-मन को झकझोर देने के लिये पर्याप्त नहीं हैं।
नित
नये-नये शिकार की तलाश में घूमते ये नराधम पशु, शिकार के मिलते ही, सब के सब मिल
कर शेयर कर लेते हैं। तब पशु-पक्षिओं से किसी प्रकार की कोई अपेक्षा रखना या
नैतिकता की बात सोचना, कुछ बेमानी सा लगता है।
डार्विन
का भी तो कुछ अनुभव रहा ही होगा। यूँ ही तो नहीं कह दिया होगा उसने। कहने से पहले
सौ बार सोचा भी होगा उसने और हजारों बार देखा भी होगा। तब कहीं जाकर दो शब्द बोले
होंगे उसने।
और
यदि इन भूखे-भेड़ियों से किसी तरह से यह बच भी गई तो, अपने पापी-पेट की भूख को मिटाने
के लिये, कहाँ से और कैसे अपने लिये दाना-पानी ला पायेगी यह। या फिर कौन है इसका
ऐसा आत्मीय-जन, शुभ-चिन्तक और हितैशी, जो जीवन-भर इसको दाना-पानी देता रहेगा,
चौबीसों घण्टे इसकी देखभाल करता रहेगा और समाज के कुत्तों से इसकी रक्षा करता
रहेगा।
सभ्य मानव की असभ्यता का शिकार हो गई है ये
बेचारी *पर-कटी चिड़िया*। और यदि यह तभी मर गई होती तो बात रफा-दफा हो गई होती और
सभ्य-मानव की असभ्यता सबके सामने न आने पाती। पर अब तो, मानव सभ्यता पर एक बड़ा
प्रश्न-चिन्ह बन कर रह गई है ये *पर-कटी चिड़िया*।
अब
तो, ये *पर-कटी चिड़िया*, जहाँ भी जायेगी, जियेगी और रहेगी, वहीं पर सभ्य
मानव-समाज की असभ्यता की कहानी को चिल्ला-चिल्ला कर कहती ही रहेगी।
और
हर किसी को बुला-बुला कर पूछती ही रहेगी, उस निष्ठुर पंख काटने वाले वहशी हत्यारे
का नाम और पता। और सभी से ये, ये भी तो पूछेगी कि कोई तो बताये कि क्या गलती थी
मेरी, क्या खता थी मेरी। किस अपराध का दण्ड दिया है मानव-समाज ने मुझे, कुछ इस तरह
से।
मैं
तो आकाश में ही उड़ रही थी। हाँ, अपने आकाश में ही तो, और अपने छोटे-छोटे बच्चों
के लिये दाना लेने ही तो आई थी। क्या आज के इस सभ्य मानव-समाज में, अपने छोटे-छोटे
बच्चों का पालन-पोषण करना दण्डनीय अपराध होता है और दण्ड भी इतना कठोर कि उसके पंख
को काटकर उसे बिना पंख का ही बना दिया जाय और बेवश, विवश होकर लाचार जिन्दगी जीने
के लिये मजबूर कर दिया जाय।
शायद
कोई कुछ बता सके इस बेवश, विवश और लाचार *पर-कटी चिड़िया* को। या फिर कोई तथा-कथित
सभ्य मानव, किसी न्यायाधीश से न्याय ही दिला सके इस बेवश, विवश और अभागिन *पर-कटी
चिड़िया* को।
और
आती-जाती हवा के हर झोके से ये, इतना तो जरूर ही पूछेगी कि ऐ हवा, क्या तूने मेरे
परिवार के किसी सदस्य को आते-जाते देखा है, क्या कोई उनका समाचार है तेरे पास। और
अगर मेरे परिवार का कोई सदस्य या मेरी जाति का कोई बन्धु-बान्धव कहीं आते-जाते मिल
जाय तो उसे मेरा हाल तो सुना ही देना, मेरी विवशता और दयनीयता की दशा को बता देना
उसको और उसको यहाँ का पता तो जरूर ही बता देना।
यहाँ
से कुछ दूरी पर ही तो है, एक छोटे से पेड़ पर मेरा छोटा-सा प्यारा घौंसला। वहीं पर
मेरे छोटे-छोटे दो बच्चे मुझे अपलक निहार रहे होंगे। दो दाने खाकर अपनी भूख मिटाने
के लिये, वे मेरी प्रतीक्षा कर रहे होंगे।
चीं-चीं,
चीं-चीं करते-करते वे रात भर मुझे पुकारते ही रहे होंगे। चिल्लाते-चिल्लाते थक गये
होंगे वे और फिर बेसुध हो गये होंगे। सोये भी तो नहीं होंगे वे रात भर और नींद भी
तो नहीं आई होगी उनको, मेरे बिना।
श्रवण
कुमार के माता-पिता से असहाय वे, अब कैसे और किसके सहारे जियेंगे अपनी जिन्दगी के
शेष दिन। अभी तो उनके जीवन का प्रारम्भ भी नहीं हुआ है ढ़ंग से। अभी तो वे उड़ना
भी नहीं जानते और ना ही ढ़ंग से चलना ही। अभी तो उन्हें दाना चुँगना भी नहीं आता
है।
और
मेरे वो, मेरे बच्चों के पापा, विरह में पागल, वे राम की तरह न जाने कहाँ-कहाँ पर
निर्जन वन में खोजते रहे होंगे। उनकी सीता ने कहाँ उनसे सोने का हिरण माँगा था और
ना ही सोने की लंका में रहने की तमन्ना ही की थी।
मेरा
तो घास-फूँस का, छोटे-छोटे तिनकों का बना प्यारा-प्यारा घौंसला ही खुशियों से भरा,
फला-फूला राज-महल था। सोने की लंका से भी अधिक सुन्दर, और विशाल राज-महल था मेरा।
सब कुछ तो था उसमें। मैं, मेरे बाल-बच्चे और मेरे वो। कितना खुशियों से भरा
खुश-खुशहाल था मेरा घर-संसार। मैं तो उसमें ही बेहद खुश थी।
मैं
तो यहाँ केवल अपने छोटे-छोटे बच्चों के लिये दाना ही तो लेने आई थी और भाग्य की
विडम्बना तो देखो, पंख देकर, यहीं की होकर रह गई, बेवश, विवश और लाचार। करूँ भी तो
क्या करूँ अब मैं। अब तो मैं कुछ कर भी तो नहीं सकती, बेवश, विवश और लाचार हूँ ना।
ये
भी तो कैसी विडम्वना है कि एक पंख से अपाहिज और लाचार मैं, अपने बच्चों के पास तक
उड़कर पहुँच भी तो नहीं सकती और वे छोटे-छोटे कोमल बाल-पंख इतने शक्तिशाली कहाँ,
जो उड़कर यहाँ तक आ भी सकें। अभी तो उन्हें ढ़ंग से बैठना भी नहीं आता और वैसे भी
उनको कुछ पता भी तो नहीं होगा मेरे बारे में।
अच्छा
ही है जो उन्हें कुछ भी पता नहीं है मेरे बारे में। वर्ना तो वे रो-रो कर जान ही
दे देते। उन्हें समझाने वाला और सुझाने वाला भी तो नहीं है अब उनके पास।
काश,
कोई परोपकारी मानव मुझे मेरे परिवार के पास तक पहुँचा देता, मिला देता। पर कैसे,
परोपकारी मानव मेरी भाषा नहीं समझ सकते और ना ही मैं उनकी भाषा। और मानवीय
सम्वेदनाओं, हृदय की पुकार और मन की भाषा को पढ़ने और समझने की समझ न तो मुझमें ही
है और ना ही ज्ञानी, ध्यानी और परोपकारी मानव में ही। खैर, विधाता की इच्छा।
और
सच तो यह है, जब तक इसको अपनी समस्या का समाधान नहीं मिल जाता। तब तक तो ये मानवता
का और मानव-सभ्यता का उपहास उड़ाती ही रहेगी।
और
इसकी कहानी की चर्चा को सुनकर, सभ्य-मानव को पीढ़ी दर पीढ़ी अपनी इस छोटी सी
दर्दनाक गलती के लिये हमेशा ही शर्मिन्दा होना पड़ेगा। और शर्मसार होकर अपना सर
झुकाना ही पड़ेगा। एक निर्दोष के हँसते-खेलते खुश-खुशहाल जीवन को नर्क जो बना दिया
है, किसी वहशी पतंग-बाज ने।
वैसे
भी, क्या गलती थी इस बेचारी की, आकाश में ही तो उड़ रही थी यह। कोई तो बताये,
बेचारी आकाश में नहीं, तो कहाँ उड़ती यह। पानी में तो इसे उड़ना आता नहीं।
और
विधाता ने इसे उड़ने के लिये आकाश ही तो दिया था और ये तो सृष्टि के सम्पूर्ण
नियमों का विधिवत् रूप से पालन कर रही थी और अपने ही आकाश में तो उड़ रही थी यह।
तो फिर गुनहगार कौन। ये या वो।
अगर ये नहीं, तो फिर वो। वो, जिसने
इसकी ऐसी दशा कर दी कि आज ये अपनी जिन्दगी को जी भी नहीं सकती और मर भी नहीं सकती।
और उस निष्ठुर पतंग-बाज ने यह जानने
की आवश्यकता भी नहीं समझी कि क्या हुआ होगा इसका। अब यह जिन्दा भी है या मर गई। मर
गई तो ठीक है और अगर नहीं मरी है तो किस हाल में होगी। कहाँ होगी, कैसी होगी ये
बेचारी *पर-कटी*।
देवदत्त ने भी तो हँस का शिकार किया
था और घायल हँस को वह अधिकार के साथ, गर्व के साथ लेने आया था। और एक वीर योद्धा
की तरह सबके सामने उसने यह स्वीकार किया था कि हाँ, इस हँस का शिकार मैंने किया
है। इस हँस पर मेरा अधिकार है, ये मेरा शिकार है, ये हँस मेरा है और सिर्फ मेरा
है। इस हँस पर मेरा और सिर्फ मेरा अधिकार है।
भले
ही *हँस किसका है* इसके निर्णय का अधिकार तो *हँस* और केवल *हँस* के पास ही था।
अपराध
था या नही, यह तो न्याय का विषय हो सकता है, विवाद का विषय हो सकता है और किसी भी
विषय पर, विचारों में मत-भेद भी हो सकता है। स्वाभाविक भी है और होना भी चाहिये।
पर
अपने कर्म को तो स्वीकार किया जाना ही चाहिये था उसको। और वह भी गर्व के साथ, एक
वीर योधा की तरह, कायरों की तरह, छुपते हुये तो नहीं फिरना चाहिये था उसको। सबके
सामने आ कर उसे कहना चाहिये था कि यह कृत्य मेरा है। मैंने ही काटे हैं इसके पंख
या फिर मुझसे ही ये गलती हुई है। और इसके लिये मैं क्षमा-याचक हूँ या फिर मेरी कोई
गलती नहीं है, मैंने कोई अपराध नहीं किया है। सारा का सारा अपराध इस चिड़िया का ही
है, सारा का सारा दोष इस चिड़िया का ही है। स्पष्टता तो होनी ही चाहिये थी। पर
क्यों नही।
यहाँ
तो घायल हँस की वेदना से केवल सिद्धार्थ ही व्यथित और चिन्तित है, देवदत्त तो इस
घटना से लेशमात्र भी चिन्तित नहीं और तो और उस निष्ठुर देवदत्त का तो दूर-दूर तक
कुछ अता-पता भी नहीं।
उसे
पता न हो, ऐसा तो हो ही नहीं सकता। सत्य को तो नकारा नहीं जा सकता। सत्य तो यह है
कि पतंग के तेज धागे से ही इस बेचारी निर्दोष चिड़िया का एक पंख कट गया था।
उड़ती
हुई पतंग के तेज धागे से किसी पक्षी का पंख कट जाये और पतंग उड़ाने वाले व्यक्ति
को पता भी न चले, ऐसी सम्भावना तो हो ही नहीं सकती।
तो
फिर सांत्वना के दो शब्द भी नही, सम्वेदना व्यक्त करने की बात भी नहीं और अपनी
गलती करने का एहसास भी नही, क्षमा-याचना भी नहीं और मलाल भी नहीं, तो फिर क्या
समझा जाय, इसे।
सरे
आम, दिन के उजाले में और विशाल अन्तरिक्ष के वक्षस्थल पर, सबके सामने ही तो कटा था
एक पंख इसका। किसी सिर-फिरे पतंगबाज ने, पतंग के तेज धागे से ही तो काट डाला था एक
पंख इसका। और जीवन-भर के लिये लाचार अपाहिज़ बना दिया, उस निष्ठुर सिर-फिरे
पतंगबाज ने।
सबको
मालूम है, सबने देखा था, सबके सामने ही तो हुआ था एक जघन्य अपराध। तो फिर, सब के
सब मौन क्यों हैं। और देव-तुल्य मानव किस मानवता की दुहाई देता है। क्या यही है
मानव की मानवता।
क्या
कोई कुछ भी नहीं कह सकता उस निष्ठुर मानव से, मानव समाज से कि बन्द करे वह आकाश
में अपनी दखलंदाजी। और आकाश पर अपने अनाधिकार आधिपत्य की कुचेष्टा। आकाश तो उसका
है ही कहाँ।
और
सच तो यह है कि मानव का आकाश से क्या लेना-देना। वह तो धरती का प्राणी है और धरती
पर रहना ही उसकी नियति होनी चाहिये।
दूसरों
के अधिकार-क्षेत्र में दखलंदाजी और प्रवेश क्यों। अनावश्यक सीमा का अतिक्रमण
क्यों। बुद्धि का दुरुपयोग कर सृष्टि का सन्तुलन बिगाड़ने की हठ क्यों।
विधाता
ने इसे, न तो आकाश में उड़ने के लिये पंख ही दिये हैं और ना ही पानी में तैरने और
रहने के लिये कोई विशिष्ट प्रकार के अंग और ना ही विशिष्ट प्रकार की काया ही।
विधाता ने तो इसे केवल थल-चर प्राणी ही बनाया है।
और फिर भी यह, न तो जल-चर प्राणियों को जल में
चैन से जीने देता है और ना ही नभ-चर प्राणियों को आकाश में ही। आखिर चाहता क्या है
ये असन्तोषी वहशी जीव।
मानव-मन
बार-बार पाखी से यही प्रश्न पूछता है कि पाखी, तूने इसे क्यों बचा लिया। मर ही
जाने दिया होता न इसे, इस *पर-कटी चिड़िया* को।
और
वैसे भी, अब क्या ये जिन्दा है। पल-पल दया और रहम की भीख माँगती, कितनी परवश, विवश
और लाचार है ये बेचारी *पर-कटी चिड़िया*।
और
फिर, सच तो यह है कि, परवशता से बड़ी विपत्ति तो दुर्भाग्य के कोश में है ही कहाँ।
इसकी जान बचाकर तूने क्यों, इसे पल-पल, मर-मर कर जीने के लिये विवश कर दिया है।
इतनी बड़ी विपत्ति, और ये छोटी-सी जान। क्या ये सब कुछ सहन कर सकेगी, जरा सोच तो
सही। पाखी, तूने ये क्या किया।
अब
तो इसे हर दिन हजारों बार मरना पड़ता है। जब-जब भी कोई व्यक्ति इसे *बेचारी* या
*पर-कटी चिड़िया* जैसे शब्दों से सम्बोधित करता है और फिर सहानुभूति, दया और रहम
की थोड़ी-बहुत भीख डाल देता है इसकी जर्जरित जीर्ण-शीर्ण झोली में, तब-तब इसकी
आँखों से निकलते आँसुओं की अविरल धारा और मन में एहसानों के बोझ की असहनीय
कष्ट-दायक पीड़ा, इसे तिल-तिल कर मरने के लिये विवश करते रहते हैं। ये कैसी भाग्य
की विडम्वना।
ऐसी
कोई जगह भी तो नहीं है इसके पास, जहाँ जाकर यह अपना सर छुपाकर, एकान्त में अकेले
ही थोड़ी-बहुत देर के लिये, रो भी सके, अपने आँसुओं को बहाकर अपने मन के बोझ को
थोड़ा-बहुत हल्का कर सके।
और
ना ही इसके पास ऐसा कोई कंधा ही है जिस कंधे पर ये अपना सर रखकर थोड़ी-बहुत देर के
लिये रो ही सके और अपने मन की असहनीय वेदना और तन की कष्ट-दायक पीड़ा को बाँटकर
हल्का कर सके।
लोग
कहते हैं कि खुशियाँ बाँटने से बढ़ती हैं और दुःख बाँटने से कम हो जाता है, हल्का
हो जाता है। पर इसके दुःख को बाँटने वाला या इसके मन की पीढ़ा को समझने वाला, है
ही कौन इसका, इसके आस-पास।
और
जो कोई है भी, वह तो इससे दूर है, बहुत दूर। इसकी इस दयनीय दशा से बिलकुल अनभिज्ञ।
उसे तो मालूम भी नहीं होगा कि ये यहाँ है और इस हाल में है।
कितनी
विवश और लाचार है ये बेचारी *पर-कटी*। करे भी तो आखिर क्या करे। मर भी तो नहीं
सकती है ये और इतना आसान भी तो नहीं होता है मर जाना। बेहद ही मुश्किल होता है मर
पाना। और वैसे भी जन्म और मरण का अधिकार है ही कहाँ इसके पास।
पर
के कट जाने की शारीरिक पीढ़ा और वेदना को तो ये जैसे-तैसे सहन कर गई। पर,
स्वभिमानी-मन पर, होते हर पल विष-युक्त जहरीले शब्द-बाणों के आघातों को, कैसे सहन
कर सकेगी ये बेचारी भावुक सम्वेदनशील रचना।
और
अगर ये तभी मर गई होती, तो न तो इसे मरने का कोई मलाल ही रहा होता, ना ही इसे हर
पल मर-मर कर जीना ही पड़ता और ना ही मानव-सभ्यता पर कलंक ही लगता।
बस,
बात भी रफा-दफा हो गई होती और फिर सब कुछ सामान्य-सा हो गया होता। हाँ, सब कुछ
शान्त।
किसी
को पता चलता और किसी को नहीं। बात भी आई-गई हो गई होती। पर आज, आज इस घटना ने तो
जन-मानस के मन को ही झकझोर कर रख दिया है।
लेकिन
नहीं, पाखी भी तो जिद्धी है, हठी है, ढीठ है और दृढ़-निश्चयी भी। वह एक बार जो मन
में ठान लेती है, उसे वह पूरा करके ही मानती है।
और
आज उसने यह संकल्प कर ही लिया है कि वह इस बेचारी *पर-कटी चिड़िया* को मरने नहीं
देगी, वह इसे हर हाल में जीवित रखेगी। वह सारे संसार और समाज को ये बता कर ही
रहेगी कि नारी कभी भी विवश और लाचार नहीं होती है, वह तो शक्ति-पुंज होती है,
चण्डी होती है, चामुण्डा होती है और होती है प्रतिशोध की प्रचण्ड-ज्वाला। ये
बेचारी *पर-कटी चिड़िया*, न तो बेचारी है और ना ही लाचार।
बल्कि
यह उन निष्ठुर और वहशी लोगों को, लाचार और मजबूर करके ही दम लेगी, शर्मिन्दा होने
के लिये, शर्मसार होने के लिये, जिन्होंने इसकी ऐसी दुर्दशा की है।
उन्हें
अपने इस घिनौंने और अमानवीय कृत्य के लिये शर्मसार तो होना ही होगा। उसे अपने इस
घृणित कर्म के लिये लज्जित तो होना ही होगा। क्षमा भी माँगनी ही होगी और भविष्य
में ऐसा न करने का संकल्प भी लेना होगा।
इस
*पर-कटी* के मन का आक्रोश और प्रतिशोध, आज से
पाखी के मन का आक्रोश और प्रतिशोध होगा। आज से यह बेचारी *पर-कटी*, ना तो
बेचारी ही है और ना ही अकेली। इसके साथ है जिद्धी, हठी और दृढ़-निश्चयी पाखी और
उसके साथ है एक सशक्त-संकल्प, प्रतिशोध का संकल्प और एक बुलन्द हौसला।
और
इस संकल्प को पूरा करने के लिये वह हर मुश्किल का सामना करने के लिये कृत-संकल्प
है। यह उसकी सत्य और न्याय की लड़ाई है एक निर्दोष को न्याय दिलाने की लड़ाई है।
सत्य की असत्य से लड़ाई है। नेक इरादे की लड़ाई है। और वह यह भी जानती है कि नेक
काम सदैव अनेक लोगों और संगठनों को साथ लेकर चलता है। वह अकेला कभी भी नहीं होता।
इस
*पर-कटी चिड़िया* की जिन्दा रहने की चाह, इसका मौत से लड़ने का बुलन्द हौसला,
न्याय पाने की तमन्ना और अपने दुश्मन से बदला लेने का आक्रोश, पाखी के मन को भा
गया है। इसके जज़्बे और हौसले की कायल हो गई है पाखी।
वरना
इतनी ऊँचाई से और इस तरह से घायल होकर गिरने के बाद, कौन बच पाता है जिन्दा। कब की
ऊपर पहुँच गई होती यह। भगवान को प्यारी ही हो गई होती यह।
और
हाँ, सच ही तो है भगवान को ही तो प्यारी हो गई थी ये *पर-कटी चिड़िया*। पाखी ही तो
इसका भगवान थी। तभी तो, न तो खून की चिन्ता की थी, ना ही दुपट्टे के खराब होने की
और ना ही अपने प्रिलिम ऐग्ज़ामस् की।
और
वह दौड़ पड़ी थी अपने डॉक्टर अंकल के दवाखाने की ओर। अपने भक्त प्रहलाद को लिये
हुये, उसके प्राणों की रक्षा के लिये, उसे बचाने के लिये।
और
समय रहते, यदि पाखी इसे अपने डॉक्टर अंकल के दवाखाने तक न पहुँचा पाती तो सच में
ही भगवान को प्यारी हो गई होती ये बेचारी *पर-कटी चिड़िया*।
...आनन्द विश्वास
*****