दीपक की है क्या बिसात, सूरज के वश की बात
नहीं।
चलते-चलते थके सूर्य, पर मिटने वाली रात नहीं।
चलते-चलते थके सूर्य, पर मिटने वाली रात नहीं।
चारों ओर निशा
का शासन,
सूरज भी निस्तेज हो गया।
कल तक जो पहरा देता था,
आज वही चुपचाप सो गया।
सूरज भी निस्तेज हो गया।
कल तक जो पहरा देता था,
आज वही चुपचाप सो गया।
सूरज भी दे दे उजियारा , ऐसे अब हालत नहीं,
चलते-चलते थके
सूर्य, पर मिटने वाली रात नहीं।
इन कजरारी काली रातों
में,
चंद्र-किरण भी लुप्त हो गई।
भोली-भाली गौर वर्ण थी,
वह रजनी भी ब्लैक हो गई।
चंद्र-किरण भी लुप्त हो गई।
भोली-भाली गौर वर्ण थी,
वह रजनी भी ब्लैक हो गई।
सब सुनते
हैं, सहते सब, करता कोई आघात नहीं,
चलते-चलते थके सूर्य, पर मिटने वाली रात नहीं।
चलते-चलते थके सूर्य, पर मिटने वाली रात नहीं।
सूरज तो बस एक चना
है,
तम का शासन बहुत
घना है।
किरण-पुंज भी नजरबंद है,
आँख खोलना सख्त मना है।
किरण-पुंज भी नजरबंद है,
आँख खोलना सख्त मना है।
किरण-पुंज को मुक्त करा दे, है कोई
नभ जात नहीं,
चलते-चलते थके सूर्य, पर मिटने वाली रात नहीं।
चलते-चलते थके सूर्य, पर मिटने वाली रात नहीं।
हर दिन सूरज
आये जाये,
पहरा चंदा हर रात लगाये।
तम का मुँह काला करने को,
हर शाम दिवाली दिया जलाये।
पहरा चंदा हर रात लगाये।
तम का मुँह काला करने को,
हर शाम दिवाली दिया जलाये।
तम भी नहीं किसी
से कम है, खायेगा वह मात नहीं,
चलते-चलते थके सूर्य, पर मिटने वाली रात नहीं।
चलते-चलते थके सूर्य, पर मिटने वाली रात नहीं।
ढह सकता है कहर
तिमिर का,
नर-तन यदि मानव बन जाये।
हो सकता है भोर सुनहरा,
मन का दीपक यदि जल जाये।
हो सकता है भोर सुनहरा,
मन का दीपक यदि जल जाये।
तम के मन में
दिया जले, तब होने वाली रात
नहीं,
चलते-चलते थके
सूर्य, पर मिटने वाली रात नहीं।
***
उपरोक्त कविता मेरे कविता-संग्रह "मिटने वाली रात नहीं" से ली गई है।
-आनन्द विश्वास