ऐसे जग का सृजन करो, माँ।
अविरल वहे
प्रेम की सरिता,
मानव
- मानव में प्यार
हो।
फूलें-फलें फूल
बगिया के,
काँटों का
हृदय उदार हो।
जिस
मग में कन्टक हों पग-पग,
ऐसे मग
का हरण करो, माँ।
ऐसे जग का
सृजन करो, माँ।
पर्वत सागर
में समता हो,
भेद-भाव का
नाम नहीं हो।
दौलत के
पापी हाथों में,
बिकता ना
ईमान कहीं हो।
लंका में
सीता को भय हो,
ऐसे जग का
सृजन करो, माँ।
ऐसे जग का
सृजन करो, माँ।
परहित का
आदर्श जहाँ हो,
घृणा-द्वेश-अभिमान नहीं हो।
मन-वचन-कर्म
का शासन हो,
सत्य
जहाँ बदनाम नहीं हो।
जन-जन में
फैले खुशहाली,
घृणा
अहम् का दमन करो माँ।
ऐसे जग का सृजन
करो, माँ।
धन में
विद्या अग्रगण्य हो,
सौम्य मनुज
श्रृंगार हो।
सरस्वती,
दो तेज किरण-सा,
हर उपवन
उजियार हो।
शीतल,स्वच्छ,समीर
सुरभि हो,
उस
उपवन का वपन करो, माँ।
ऐसे जग का
सृजन करो, माँ।
-आनन्द
विश्वास