नभ
में उड़ने की है मन में,
उड़कर
पहुँचूँ नील गगन में।
काश, हमारे दो
पर होते,
हम बादल से
ऊपर होते।
तारों के संग यारी होती,
चन्दा के संग
सोते होते।
बिन
पर सबकुछ मन ही मन में,
नभ
में उड़ने की है मन में।
सुनते हैं बादल से
ऊपर,
ढ़ेरों ग्रह-उपग्रह
होते हैं।
उन पर
जाते, पता लगाते,
प्राणी,
क्या उन पर होते हैं।
और
धरा से, कितने उन में,
नभ
में उड़ने की है मन में।
बहुत बड़ा
ब्रह्माण्ड हमारा,
अनगिन
सूरज,चन्दा, तारे।
कितने, सूरज दादा अपने,
कितने, मामा
और हमारे।
कैसे
जानूँ, हूँ उलझन
में,
नभ
में उड़ने की है मन में।
दादा-मामा के घर जाते,
उनसे मिलकर
ज्ञान बढ़ाते।
दादी के हाथों की
रोटी,
दाल,भात औ सब्जी खाते।
लोनी,
माखन, मट्ठा मन में।
नभ
में उड़ने की है मन में।
...आनन्द
विश्वास