Thursday, 12 November 2015

गोबर, तुम केवल गोबर हो।

गोबर, तुम केवल गोबर हो।
...आनन्द विश्वास
गोबर,
तुम केवल गोबर हो।
या सारे जग की, सकल घरोहर हो।
तुमसे ही निर्मित, जन-जन का जीवन,
तुमसे ही निर्मित, अन्न फसल का हर कन।
तुम आदि-अन्त,
तुम दिग्-दिगन्त,
तुम प्रकृति-नटी के प्राण,
तुम्हारा अभिनन्दन।
वैसे तो-
लोग तुम्हें गोबर कहते,
पर तुम, पर के लिए,
स्वयं को अर्पित करते।
तुम, माटी में मिल,
माटी को कंचन कर देते।
कृषक देश का,
होता जीवन-दाता।
उसी कृषक के,
तुम हो भाग्य-विधाता।
अधिक अन्न उपजा कर,
तुम, उसका भाग्य बदल देते।
और, तुम्हारे उपले-कंडे,
कलावती के घर में,
खाना रोज़ पकाते हैं।
तुमसे लिपे-पुते घर-आँगन,
स्वास्थ दृष्टि से,
सर्वोत्तम कहलाते हैं।
गोबर-गैस का प्लान्ट तुम्हारा,
सबसे सुन्दर, सबसे प्यारा।
खेतों में देता हरियाली,
गाँवों में देता उजियारा।
भूल हुई मानव से,
जिसने, तुम्हें नहीं पहचाना।
भूल गया उपकार तुम्हारे,
खुद को ही सब कुछ माना।

...आनन्द विश्वास

No comments:

Post a Comment